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________________ इसवी दशा] प०-तीसे णं तहप्पगाराए इत्थियाए तहाल्वे समणे वा माहणे वा उभयकालं केवलिपण्णत्तं धम्म आइक्खेज्जा? उ०-हंता ! आइक्खेज्जा। प०-सा णं पडिसुज्जा ? उ.- णो इणठे समढे / अभिवया णं सा तस्स धम्मस्स सवणयाए। सा य भवति महिच्छा जाब' दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साए दुल्लभबोहिया यावि भवइ / एवं खलु समणाउसो! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर आराधना करती हुई निर्ग्रन्थी यावत् एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है / वह एक सरीखे (स्वर्ण के या रत्नों के) आभरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल की कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान संरक्षणीय है और संग्रहणीय है। प्रासाद में आते-जाते हुए उसके आगे छत्र, झारी लेकर अनेक दासी-दास-नौकर-चाकर चलते हैं यावत् एक को बुलाने पर उसके सामने चार-पांच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं- "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? यावत् आपके मुख को कोनसे पदार्थ अच्छे लगते हैं ? उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है कि "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थी निदान करके उस निदान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होती है यावत् दिव्य भोग भोगती हुई रहती है यावत् आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर वह उस देवलोक से च्यव कर विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी कुल में से किसी एक कुल में बालिका रूप में उत्पन्न होती है। वहां वह बालिका सुकुमार यावत् सुरूप होती है। उसके बाल्यभाव से मुक्त होने पर तथा विज्ञानपरिणत एवं यौवनवय प्राप्त होने पर उसे उसके माता-पिता उस जैसे सुन्दर एवं योग्य पति को अनुरूप दहेज के साथ पत्नी रूप में देते हैं। 1. प्रथम निदान में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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