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________________ नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका अपराध इतना महान होता है कि बिना वैसा किये उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न अन्य श्रमणों के अन्तर्मानस में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार दसवें पारंचिक प्रायश्चित्त वाले श्रमण को भी गहस्थ का वेष पहनाने के पश्चात पुन: संयम में स्थापित करना चाहिए / यह अधिकार प्रायश्चित्तदाता के हाथ में है कि उसे गहस्थ का वेष न पहनाकर अन्य प्रकार का वेष भी पहना सकता है। पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमण एक साथ आहार करें, यह उचित नहीं है / पारिहारिक श्रमणों के साथ बिना तप पूर्ण हुए अपारिहारिक श्रमणों को आहारादि नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूर्ण होने के पश्चात् एक मास के तप पर पांच दिन और छह महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई आहार नहीं कर सकता, क्योंकि उन दिनों में उनके लिए विशेष प्रकार के पाहार की आवश्यकता होती है जो दूसरों के लिए आवश्यक नहीं / तृतीय उद्देशक में बताया है कि किसी श्रमण के मानस में अपना स्वतंत्र गच्छ बनाकर परिभ्रमण करने की इच्छा हो पर वह आचारांग आदि का परिज्ञाता नहीं हो तो शिष्य आदि परिवारसहित होने पर भी पृथक् गण बनाकर स्वच्छन्दी होना योग्य नहीं। यदि वह आचारांग आदि का ज्ञाता है तो स्थविर से अनुमति लेकर विचर थविर की बिना अनुमति के विचरने बाले को जितने दिन इस प्रकार विचरा हो उतने ही दिन का छेद या पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, निर्ग्रन्थ के प्राचार में निष्णात हैं, संयम में प्रवीण है, आचारांग प्रादि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है आदि / प्राचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-बृहत्कल्पव्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित है / आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक पद उसे दिया जा सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचनदक्ष, असंक्लिष्टमना व स्थानांग-समवायांग का ज्ञाता है। अपवाद में एक दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी प्राचार्य, उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोद कारी, अनुमत, बहुमत व उच्च कुलोत्पन्न एवं गुणसंपन्न होना आवश्यक है। आचार्य अथवा उपाध्याय की आज्ञा से ही संयम का पालन करना चाहिए / अब्रह्म का सेवन करने वाला प्राचार्य आदि पदवी के अयोग्य है / यदि गच्छ का परित्याग कर उसने वैसा कार्य किया है तो पुनः दीक्षा धारण कर तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शांत हो, कषाय आदि का अभाव हो तो प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। चतुर्थ उद्देशक में कहा है कि प्राचार्य अथवा उपाध्याय के साथ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक अन्य साधु होना चाहिए और गणावच्छेदक के साथ दो / बर्षाऋतु में प्राचार्य और उपाध्याय के साथ दो व गणावच्छेदक के साथ तीन साधुओं का होना आवश्यक है। [ 56 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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