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________________ आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालकर यह बताया गया है कि उनके अभाव में किस प्रकार रहना चाहिए ? आचार्य, उपाध्याय यदि अधिक रुग्ण हों और जीवन की आशा कम हो तो अन्य सभी श्रमणों को बुलाकर प्राचार्य कहे कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पदवी प्रदान करना / उनकी मृत्यु के पश्चात् यदि वह साधु योग्य प्रतीत न हो तो अन्य को भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य हो तो उसे ही प्रतिष्ठित करना चाहिए। अन्य योग्य श्रमण आचारांग आदि पढ़कर दक्ष न हो जाय तब तक आचार्य आदि की सम्मति से अस्थायी रूप से साधु को किसी भी पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य पदाधिकारी प्राप्त होने पर पूर्वव्यक्ति को अपने पद से पृथक हो जाना चाहिए। यदि वह वैसा नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है। दो श्रमण साथ में विचरण करते हों तो उन्हें योग्यतानुसार छोटा और बड़ा होकर रहना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए / इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को भी। पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए और गणावच्छेदिका के साथ तीन अन्य साध्वियां होनी चाहिए / वर्षा ऋतु में प्रवर्तिनी के साथ तीन और गणावच्छेदिका के साथ चार साध्वियां होनी चाहिए। प्रवर्तिनी प्रादि की मृत्यू और पदाधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में जैसा श्रमणों के लिए कहा गया है वैसा ही श्रमणियों के लिए भी समझना चाहिए। वैयावृत्य के लिए सामान्य विधान यह है कि श्रमण, श्रमणी से और श्रमणी, श्रमण से बयावृत्य न करावे किन्तु अपवादरूप में परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि कोई विशिष्ट परिस्थिति पैदा हो जाय तो अपवादरूप में गहस्थ से भी सेवा करवाई जा न स्थविरकल्पियों के लिए है। जिनकल्पियों के लिए सेवा का विधान नहीं है। यदि वे सेवा करवाते हैं तो पारिहारिक तपरूप प्रायश्चित्त करना पड़ता है। छठे उद्देशक में बताया है कि अपने स्वजनों के यहां बिना स्थविरों की अनुमति प्राप्त किए नहीं जाना चाहिए। जो श्रमण-श्रमणी अल्पश्रुत व अल्प-प्रागमी हैं उन्हें एकाकी अपने सम्बन्धियों के यहां नहीं जाना चाहिए / यदि जाना है तो बहुश्रुत व बहुप्रागमधारी श्रमण-श्रमणी के साथ जाना चाहिए। श्रमण के पहुंचने के पूर्व जो वस्तु पक कर तैयार हो चुकी है वह ग्राह्य है और जो तैयार नहीं हुई है वह अग्राह्य है। प्राचार्य, उपाध्याय यदि बाहर से उपाश्रय में आवें तो उनके पांव पोंछकर साफ करना चाहिए। उनके लघुनीत आदि को यतनापूर्वक भूमि पर परठना चाहिए। यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करनी चाहिए / उपाश्रय में उनके साथ रहना चाहिए। उपाश्रय के बाहर जावें तब उनके साथ जाना चाहिए / गणावच्छेदक उपाश्रय में रहें तब साथ रहना चाहिए और उपाश्रय से बाहर जाएं तो साथ जाना चाहिए। श्रमण-श्रमणियों को प्राचारांग आदि आगमों के ज्ञाता श्रमण-श्रमणियों के साथ रहन कल्पता है और बिना ज्ञाता के साथ रहने पर प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। किसी विशेष कारण से अन्य गच्छ से निकलकर आने वाले श्रमण-श्रमणी यदि निर्दोष हैं, आचारनिष्ठ हैं, सबलदोष से रहित हैं, क्रोधादि से असंस्पृष्ट हैं, अपने दोषों की आलोचना कर शूद्धि करते हैं, तो उनके साथ समानता का व्यवहार करना कल्पता है, नहीं तो नहीं। [ 57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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