________________ दसवीं दशा] [105 हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है यावत् संयम-साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ दिव्य और मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाने पर यों सोचे कि "मानुषिक कामभोग अध्र व हैं यावत् त्याज्य हैं। देव सम्बन्धी कामभोग भो अध्र व हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, चलाचलस्वभाव वाले हैं, जन्म-मरण बढ़ाने वाले हैं, आगे-पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में जो ये विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी कुल हैं, वहां पुरुष रूप में उत्पन्न होऊँ और श्रमणोपासक बनू।" जीवाजीव के स्वरूप को जानू यावत् ग्रहण किये हुए तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्य भोगों को भोगता हुमा विचरता है यावत् वह देव उस लोक से अायुक्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं-“हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभयकाल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०--हां, कहते हैं। प्र०—क्या वह सुनता है ? उ० हां, सुनता है। प्र०-क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? उ० हां, वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? प्र०-क्या वह शोलवत यावत् पौषधोपवास स्वीकार करता है ? उ०—हां, वह स्वीकार करता है। प्र०-क्या वह गृहवास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अनगार प्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं / वह श्रमणोपासक होता है, जीवाजीव का ज्ञाता यावत् प्रतिलाभित करता हुप्रा विचरता है / इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करता है, पालन करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भक्त-प्रत्याख्यान (भोजनत्याग) करता है, भक्तप्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करता है, छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है। जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर किसी देवलोक में देव होता है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदानशल्य का यह पाप रूप परिणाम है कि वह गृहवास को छोड़कर एवं सर्वथा मुण्डित होकर अनगार प्रव्रज्या स्वीकार नहीं कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org