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________________ प्रकाशकीय "त्रीणि छेदमुत्राणि' शीर्षक के अन्तर्गत दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार ये तीन छेदमूत्र प्रकाशित है। पृष्ठ मर्यादा अधिक होने से निशीथमुत्र को पृथक ग्रन्थांक के रूप में प्रकाशित किया है / इन चारों छेदसूत्रों का अनुवाद. विवेचन, संपादन अादि का कार्य मुख्य रूप से अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' के सान्निध्य में गीतार्थ मुनि श्री तिलोकमुनिजी ने वहुत परिश्रम. लगन और मनोयोगपूर्वक किया है। अताव पाठकगण छेदम्त्रों सम्बन्धी अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिए मुनि श्री तिलोकमुनिजी से संपर्क बनायें। आगमबत्तीमी के अंतिम वर्ग में छदसूत्रों का समावेश है। इनके प्रकाशन के साथ सभी आगमों का प्रकाशन कार्य संपन्न हो गया है / अताव उपमहार के रूप में ममिति अपना निवेदन प्रस्तुत करती है-- श्रमणमंध के युवाचार्यश्री स्व. श्रद्धय मधुकरमुनिजी म. सा. जब अपने महामहिम गुरुदेवश्री जोरावरमलजी म. सा. में प्रागमों का अध्ययन करते थे तब गुरुदेवश्री ने अनेक बार अपने उद्गार व्यक्त किये थे कि प्रागमों को उनकी टीकानों का मारांश लेकर सरल सुबोध भाषा, शैली में उपलब्ध कराया जाये तो पठन-पाठन के लिये विशेष उपयोगी होगा। गुरुदेवश्री के इन उदगारों में बवाचार्यश्री जी को प्रेरणा मिली। अपने ज्येष्ठ गहम्राता स्वामीजी श्री हजारीमलजी म., स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. से चर्चा करते, योजना बनाते और जब अपनी ओर मे योजना को पूर्ण पद दिया तब विद्वद्वर्य मुनिराजों, विदुषी साध्वियों को भी अपने विचारों में अवगत कराया। सद्गृहस्थों से परामर्श किया / इम प्रकार मभी और में योजना का अनुमोदन हो गया तब वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला 10 श्रमणभगवान महावीर के कैवल्यदिवस पर भगवान की देशना रूप पागमबत्तीसी के संपादन, प्रकाशन को प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी गई और निर्धारित रीति-नीति के अनुसार कार्य प्रारम्भ हो गया। युवाचार्य चादर-प्रदान महात्मव दिवस पर ग्राचारांगम्त्र को जिनागम ग्रन्थमाला ग्रन्यांक 1 के रूप में पाठकों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत किया। यह प्रकाशन-परम्पग प्रवाध गति में चल रही थी कि दारुणप्रसंग उपस्थित हो गया. अवसाद की गहरी घटायें घिर ग्राई। योजनाकार युवाचार्यश्री दिवंगत हो गये। यह मामिक ग्राघात था। किन्तु साहम और स्व. युवाचार्यश्री के वरद पाशीर्वादों का संबल लेकर समिति अपने कार्य में तत्पर रही। इसी का सुफल है कि ग्रागमवतीसी के प्रकाशन के जिस महान कार्य को प्रारम्भ किया था, वह यथाविधि सम्पन्न कर सकी है। ममिति अध्यात्मयोगिनी विदुषी महामती श्री उमरावकूवरजी म. सा. "अर्चना" की कृतज्ञ है। अपने मार्ग-दर्शन और युवाचार्यश्री के रिक्त स्थान की पुति कर कार्य को पूर्ण करने की प्रेरणा दी। पद्मश्री मोहनमलजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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