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________________ चौमी वशा] [23 (1) प्र०-भगवन् ! अवग्रहमतिसम्पदा क्या है ? उ०—अवग्रहमतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है / जैसे-- 1. प्रश्न आदि को शीघ्र ग्रहण करना। 2. बहुत अर्थ को ग्रहण करना। 3. अनेक प्रकार के अर्थों को ग्रहण करना। 4. निश्चित रूप से अर्थ को ग्रहण करना / 5. अनुक्त अर्थ को अपनी प्रतिभा से ग्रहण करना। 6. सन्देहरहित होकर अर्थ को ग्रहण करना। (2) इसी प्रकार ईहामतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (3) इसी प्रकार अवायमतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (4) प्र०-भगवन् ! धारणामतिसम्पदा क्या है ? उ.--धारणामतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है / जैसे-- 1. बहुत अर्थ को धारण करना। 2. अनेक प्रकार के अर्थों को धारण करना / 3. पुरानी धारणा को धारण करना। 4. कठिन से कठिन अर्थ को धारण करना। 5. किसी के अधीन न रहकर अनुकूल अर्थ को निश्चित रूप से अपनी प्रतिभा द्वारा धारण करना / 6. ज्ञात अर्थ को सन्देहरहित होकर धारण करना / यह धारणामतिसम्पदा है। 7. प्र०-भगवन् ! प्रयोगमतिसम्पदा क्या है ? उ०प्रयोगमतिसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे 1. अपनी शक्ति को जानकर वादविवाद (शास्त्रार्थ) का प्रयोग करना / 2. परिषद् के भावों को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / 3. क्षेत्र को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / 4. वस्तु के विषय को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / यह प्रयोगमतिसम्पदा है। 8. प्र०-भगवन् ! संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा क्या है ? उ०-संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे-- 1. वर्षावास में अनेक मुनिजनों के रहने योग्य क्षेत्र का प्रतिलेखन करना। 2. अनेक मुनिजनों के लिए प्रातिहारिक पीठ फलक शय्या और संस्तारक ग्रहण करना। 3. यथाकाल यथोचित कार्य को करना और कराना। 4. गुरुजनों का यथायोग्य पूजा-सत्कार करना / यह संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा है। विवेचन-इस दशा में प्राचार्य को 'गणी' कहा गया है। साधुसमुदाय को "गण" या "गच्छ" कहा जाता है, उस गण के जो अधिपति (स्वामी) होते हैं, उन्हें गणि या गच्छाधिपति कहा जाता है / उनके गुणों के समूह को सम्पदा कहते हैं। गणि को उन गुणों से पूर्ण होना ही चाहिए, क्योंकि बिना गुणों के वह गण की रक्षा नहीं कर सकता है और गण की रक्षा करना ही उसका प्रमुख कर्तव्य है। शिष्य-समुदाय द्रव्य-संपदा है और ज्ञानादि गुण का समूह भाव-संपदा है। दोनों संपदाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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