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________________ 24] [दशा तस्कन्ध से युक्त व्यक्ति ही वास्तव में गणि पद को सुशोभित करता है / प्रस्तुत दशा में द्रव्य और भाव सम्पदा को ही विस्तार से आठ प्रकार की सम्पदाओं द्वारा कहा गया है। आचारसम्पदा-१. संयम की सभी क्रियाओं में योगों का स्थिर होना आवश्यक है, क्योंकि उन क्रियाओं का उचित रीति से पालन तभी हो सकता है। 2. प्राचार्य-पद-प्राप्ति का अभिमान न करते हुए सदा विनीतभाव से रहना, क्योंकि विनय से ही अन्य सभी गुणों का विकास होता है। 3. अप्रतिबद्ध होकर विचरण करना, क्योंकि प्राचार्य के विचरण करने से ही धर्म-प्रभावना अधिक होती है तथा विचरण से ही वह आचार-धर्म पर दृढ़ रह सकता है। 4. लघुवय में भी प्राचार्य पद प्राप्त हो सकता है किन्तु शान्त स्वभाव एवं गांभीर्य होना अर्थात् बचपन न रखकर प्रौढ़ता धारण करना अत्यावश्यक है। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "आचारसम्पदा" युक्त होता है। (2) श्रुतसम्पदा-१. उपलब्ध विशाल श्रुत में से प्रमुख सूत्रग्रन्थों का चिन्तन-मननपूर्वक अध्ययन होना और उनमें आये विषयों से तात्त्विक निर्णय करने की क्षमता होना / 2. श्रुत के विषयों का हृदयंगम होना, उसका परमार्थ समझना तथा विस्मृत न होना। 3. नय-निक्षेप, भेद-प्रभेद सहित अध्ययन होना तथा मत-मतांतर आदि की चर्चा-वार्ता करने के लिए श्रुत का समुचित अभ्यास होना। 4. ह्रस्व-दीर्घ, संयुक्ताक्षर, गद्य-पद्यमय सूत्रपाठों का पूर्ण शुद्ध उच्चारण होना। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "श्रुत (ज्ञान) संपदा" युक्त होता है / (3) शरीरसम्पदा--१. ऊँचाई और मोटाई में प्रमाणयुक्त शरीर अर्थात् अति लम्बा या अति ठिगना तथा अति दुर्बल या अति स्थूल न होना / 2. शरीर के सभी अंगोपांगों का सुव्यवस्थित होना अर्थात् दूसरों को हास्यास्पद और स्वयं को लज्जाजनक लगे, ऐसा शरीर न होना। 3. सुदृढ़ संहनन होना अर्थात् शरीर शक्ति से सम्पन्न होना / 4. सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण होना, पूर्ण शरीर सुगठित होना, प्रांख-कान आदि की विकलता न होना अर्थात् शरीर सुन्दर, सुडौल, कांतिमान और प्रभावशाली होना। इन गुणों से युक्त आचार्य 'शरीरसम्पदा' युक्त होता है। (4) वचनसम्पदा-१. आदेश और शिक्षा के वचन शिष्यादि सहर्ष स्वीकार कर लें और जनता भी उनके वचनों को प्रमाण मान ले, ऐसे आदेयवचन वाला होना। 2. सारगर्भित तथा मधुरभाषी होना और आगमसम्मत वचन होना / किन्तु निरर्थक या मोक्षमार्ग निरपेक्ष वचन न होना / 3. अनुबन्धयुक्त वचन न होना अर्थात् "उसने भी ऐसा कहा था या उससे पूछकर कहूँगा" इत्यादि अथवा राग-द्वेष से युक्त वचन न बोलना, किन्तु शान्त स्वभाव से निष्पक्ष वचन बोलना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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