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________________ देता है, वह धारणाव्यवहार है। अथवा -वैयावत्य अर्थात सेवाकार्यों से जिस श्रमण ने गण का उपकार किया है वह यदि छेदश्रुत न सीख सके तो गुरु महाराज उसे कतिपय प्रायश्चित्त पदों की धारणा कराते हैं यह भी धारणाव्यवहार है। जीतव्यवहार स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था--ये 'जीत' के पर्यायवाची हैं / गीतार्थ द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार जीतव्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीतव्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि-निषेध भी जीतव्यवहार है।' व्यवहारपंचक के क्रमभंग का प्रायश्चित्त आगमव्यवहार के होते हुये यदि कोई श्रुतव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। इसी प्रकार श्रतव्यवहार के होते हुये प्राज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, याज्ञाव्यवहार के होते हये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणाव्यवहार के होते हुये जीतव्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपूर्वीक्रम से अर्थात् अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीतक्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है। आगमव्यवहारी आगमव्यवहार से ही व्यवहार करते है; अन्य श्रुतादि व्यवहारों से नहीं क्योंकि जिस समय सूर्य का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। कि पुण गुणोवएसो, ववहारस्स उ चिउ पसत्थस्म / एसो भे परिकहियो, दुवालसंगस्स गवणीयं / __-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 724 / जं जीतं सावज्ज, न तेण जीएण होइ बवहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो॥ –व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 715 / ज जस्स पच्छित्तं, पायरियपरंपराए अविरुद्ध / जोगा य बहु विगप्पा, एमो खलु जीतकप्पो / / -व्यव० भाष्य पीबिका गाथा 12 / जं जीयमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाईण्णं / जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण बवहारो॥ जं जीयं सोहिकर, संवेगपरायणेन दत्तेण / एगेण वि पाइण्णं, तेण उ जीएण बवहारो॥ .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 720, 721 / [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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