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________________ दसवों दशा] [103 रूप में उत्पन्न होता है / वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। वह देव वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुवित देवियों के साथ भी विषय सेवन नहीं करता है, किन्तु अपनी देवियों के साथ विषय सेवन करता है। वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०--इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०—हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है ? उ.--हां, सुनता है। प्र०-क्या वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ? उ.- हां वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है। प्र०-क्या वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं है। यह केवल दर्शन-श्रावक होता है। वह जीव अजीव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है यावत् उसके अस्थि एवं मज्जा में धर्म के प्रति अनुराग होता है। यथा-"हे आयुष्मन् ! यह निम्रन्थप्रवचन ही जीवन में इष्ट है। यही परमार्थ है। अन्य सब निरर्थक है।" वह इस प्रकार अनेक वर्षों तक अगारधर्म की आराधना करता है और आराधना करके जीवन के अन्तिम क्षणों में किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पाप रूप परिणाम है कि वह शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास नहीं कर सकता है / 8. श्रमणोपासक होने के लिये निदान करना / एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते जाव से य परक्कममाणे दिधमाणुस्सएहि कामभोगेहि णिवेदं गच्छेज्जा "माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा, दिव्वा वि खलु कामभोगा प्रधुवा, अणितिया, प्रसासया, चलाचलण-धम्मा, पुणरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा।" 1. भगवती श. 2, उ.५, सु. 11 2-3. सातवें निदान में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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