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________________ 26] [दशाश्रुतस्कन्ध रखकर अति परिणामी, अपरिणामी, अगीतार्थ शिष्यों के हिताहित का विचार रखते हुए तथा वाद के परिणाम में लाभालाभ की तुलना करके वाद का प्रयोग करना। इन कुशलताओं से सम्पन्न प्राचार्य "प्रयोगमतिसम्पदा" युक्त होता है / () संग्रहपरिज्ञासम्पदा-१. उपरोक्त सम्पदाओं से युक्त प्राचार्य में यह उत्साह होना कि जनपद में ग्रामानुग्राम विचरण करके वीतरागप्रज्ञप्त धर्म पर सर्वसाधारण की श्रद्धा सुदृढ़ करन 'धर्म पर सर्वसाधारण की श्रद्धा सुदृढ़ करना और उन्हें धर्मानुरागी बनाना, जिससे चातुर्मास योग्य क्षेत्र सुलभ रहे / 2. वहाँ के लोगों की प्रातिथ्य [सुपात्रदान की भावना बढ़ाना, जिससे बाल, ग्लान, वृद्ध, तपस्वी और अध्ययनशील साधु-साध्वियों का तथा प्राचार्य, उपाध्याय का निर्वाह एवं सेवा शुश्रूषा सहज संपन्न हो सके अर्थात् पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक तथा आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, औषध वगैरह सर्वथा सुलभ हों। 3. स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, उपधि-माहारादि की गवेषणा, अध्ययन-अध्यापन और यथाविधि संयम का पालन कराना तथा संयम का सम्यक् पालन करना / 4. दीक्षापर्याय में जो ज्येष्ठ हो तथा संयमदाता, वाचनादाता या गुरु हो, उनके पादरसत्कार आदि व्यवहारों का स्वयं पूर्ण पालन करना / ऐसा करने से शिष्यों में और समाज में विनय गुण का अनुपम प्रभाव होता है। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "संग्रहपरिज्ञासम्पदा" युक्त होता है। प्राचार्य सम्पूर्ण संघ की धर्म-नौका के नाविक होते हैं / अतः संघहित के लिए सभी का यह कर्तव्य है कि वे उपरोक्त पाठ सम्पदा रूप सर्वोच्च गुणों से सम्पन्न गीतार्थ भिक्षु को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करें। ___ संघनायक प्राचार्य में पाठों ही सम्पदा होना आवश्यक है। तभी वे सम्पूर्ण संघ के सदस्यों की सुरक्षा और विकास कर सकते हैं तथा जिनशासन की प्रचुर प्रभावना कर सकते हैं। 1. सर्वप्रथम प्राचार्य का प्राचार-सम्पन्न होना आवश्यक है, क्योंकि प्राचार की शुद्धि से ही व्यवहार शुद्ध होता है। 2. अनेक साधकों का मार्गदर्शक होने से श्रुतज्ञान से सम्पन्न होना भी आवश्यक है / बहुश्रुत ही सर्वत्र निर्भय विचरण कर सकता है। 3. ज्ञान और क्रिया भी शारीरिक सौष्ठव होने पर ही प्रभावक हो सकते हैं, रुग्ण या अशोभनीय शरीर धर्म-प्रभावना में सहायक नहीं होता है। 4. धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रमुख साधन वाणी भी है। अत: तीन संपदात्रों के साथ-साथ वचनसंपदा भी प्राचार्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। 5. बाह्य प्रभाव के साथ-साथ योग्य शिष्यों की संपदा भी आवश्यक है, क्योंकि सर्वगुणसंपन्न अकेला व्यक्ति भी विशाल कार्यक्षेत्र में अधिक सफल नहीं हो सकता। अत: वाचनाओं के द्वारा अनेक बहुश्रुत गीतार्थ प्रतिभासंपन्न शिष्यों को तैयार करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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