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________________ चौथी दशा] [27 6. शिष्य भी विभिन्न तर्क, बुद्धि, रुचि, प्राचार वाले होते हैं। अतः प्राचार्य का सभी के संरक्षण तथा संवर्धन के योग्य बहुमुखी बुद्धिसंपन्न होना आवश्यक है। 7. विशाल समुदाय में अनेक परिस्थितियाँ तथा उलझनें उपस्थित होती रहती हैं। उनका यथासमय शीघ्र समुचित समाधान करने के लिये मतिसंपदा और प्रयोगमतिसंपदा का होना भी आवश्यक है / अन्य अनेक मत-मतान्तरों के सैद्धान्तिक विवाद या शास्त्रार्थ के प्रसंग उपस्थित होने पर योग्य रीति से उनका प्रतीकार करना भी आवश्यक है। ऐसे समय में तर्क, बुद्धि और श्रुत का प्रयोग बहुत धर्मप्रभावना करने वाला होता है। 8. उपरोक्त गुणों से धर्म की प्रभावना होने पर सर्वत्र यश की वृद्धि होने से शिष्य-परिवार की वृद्धि होना स्वाभाविक है। विशाल शिष्यसमुदाय के संयम की यथाविधि आराधना हो इसके लिये विचरण क्षेत्र, उपधि, आहारादि की सुलभता तथा अध्ययन, सेवा, विनय-व्यवहार की समुचित व्यवस्था और संयम समाचारी के पालन की देख-रेख, सारणा-वारणा सुव्यवस्थित होना भी अत्यावश्यक है। इस प्रकार आठों ही संपदाएँ परस्पर एक-दूसरे की पूरक तथा स्वतः महत्त्वशील हैं। ऐसे गुणों से संपन्न आचार्य का होना प्रत्येक गण (गच्छ-समुदाय) के लिये अनिवार्य है। जैसे कुशल नाविक के बिना नौका के यात्रियों की समुद्र में पूर्ण सुरक्षा को प्राशा रखना अनुचित है वैसे ही आठ संपदाओं से संपन्न प्राचार्य के अभाव में संयमसाधकों की साधना और आराधना सदा विराधना रहित रहे, यह भी संभव नहीं है। प्रत्येक साधक का भी यह कर्तव्य है कि वह जब तक पूर्ण योग्य और गीतार्थ न बन जाय तब तक उपरोक्त योग्यता से संपन्न प्राचार्य के नेतृत्व में ही अपना संयमी जीवन सुरक्षित बनाये रखे। शिष्य के प्रति आचार्य के कर्तव्य ___ आयरिओ अंतेवासि इमाए चउम्विहाए विणयपडिवत्तीए विणइत्ता भवइ निरिणतं गच्छा, तं जहा 1. पायार-विणएणं, 2. सुय-विणएणं, 3. विखेवणा-विणएणं, 4. दोसनिग्घायण-विणएणं। 1. ५०-से कि तं आयार-विणए ? उ.---आयार-विणए चउविहे पण्णते, तं जहा 1. संयमसामायारी यावि भवइ, 2. तवसामायारी यावि भवइ, 3. गणसामायारी यावि भवइ, 4. एकल्लविहारसामायारी यावि भवइ / से तं प्रायार-विणए। 2. ५०-से किं तं सुय-विणए ? उ.-सुय-विणए चउबिहे पण्णते, तं जहा 1. सुत्तं वाएइ, 2. प्रत्यं वाएइ, 3. हियं वाएइ, 4. निस्सेसं वाएइ / से तं सुय-विणए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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