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________________ प्रतिदिन अतिचारों की अालोचना करते रहने से आस्मा कर्ममल से प्रतिमलिन नहीं होता है और भावप्रारोग्य रहता है। ज्यों ज्यों योगों का व्यापार अवरुद्ध होता है और कषाय मन्दतम होते जाते हैं, त्यों त्यों अतिचारों का लगना प्रल्प होता जाता है। द्वितीय वर्ग ऐसा है जो अयश-अकीति, अवर्ण (निन्दा) या अवज्ञा के भय से अयवा यश-कीर्ति या पूजा-सत्कार कम हो जाने के भय से अतिचारों की आलोचना ही नहीं करते। तृतीय वर्ग ऐसा है जो आलोचना तो करता है पर मायापूर्वक करता है / वह सोचता है मैं यदि पालोचना नहीं करूगा तो मेरा वर्तमान जीवन गहित हो जायगा और भावी जीवन भी विक्रत हो जाय करूंगा तो मेरा वर्तमान एवं भावी जीवन प्रशस्त हो जायगा अथवा पालोचना कर लूगा तो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति हो जायगी। मायावी आलोचक को दुगुना प्रायश्चित्त देने का विधान प्रारम्भ के सूत्रों में है। चौथा वर्ग ऐसा है जो मायारहित आलोचना करता है, वह 1. जातिसम्पन्न, 2. कुलसम्पन्न, 3. विनयसम्पन्न, 4. ज्ञानसम्पन्न, 5. दर्शनसम्पन्न, 6. चारित्रसम्पन्न, 7. क्षमाशील, 8. निग्रहशील, 9, अमायी, 10. अपश्चात्तापी / ऐसे साधकों का यह वर्ग है / इनका व्यवहार और निश्चय दोनों शुद्ध होते हैं / __ पालोचक गीतार्थ हो या अगीतार्थ, उन्हें आलोचना सदा गीतार्थ के सामने ही करनी चाहिये / गीतार्थ के अभाव में किन के सामने करना चाहिये।' उनका एक क्रम है--जो छेदसूत्रों के स्वाध्याय से जाना जा सकता है। व्यवहारसूत्र का सम्पादन क्यों संयमी आत्माओं के जीवन का चरम लक्ष्य है -"निश्चयशुद्धि' अर्थात् आत्मा की (कर्म-मल से) सर्वथा मुक्ति और इसके लिये व्यवहारसूत्र प्रतिपादित व्यवहारशुद्धि अनिवार्य है। जिसप्रकार शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के लिये उदरशुद्धि आवश्यक है और उदरशुद्धि के लिये आहारशुद्धि अत्यावश्यक है-इसी प्रकार प्राध्यात्मिक आरोग्यलाभ के लिए निश्चयशुद्धि आवश्यक है और निश्चयशुद्धि के लिये व्यवहारशुद्धि आवश्यक है। क्योंकि व्यवहारशुद्धि के बिना निश्चयशुद्धि सर्वथा असंभव है। सांसारिक जीवन में व्यवहारशुद्धि वाले (रुपये-पैसों के देने लेने में प्रामाणिक) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहारशुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि (वन्दन-पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। 1. गाहा–पायरियपायमूलं, गंतूर्ण सइ परक्कमे / ताहे सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो।। जह सकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि / वेज्जस्स य सो सोउतो, पडिकम्म समारभते // जायांतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरयं, पालोएदव्वयं होइ / जह बालो जप्पंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह पालोइज्जा मायामय विप्पमुक्को उ / .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 460-471 / [ 33 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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