________________ 52] [दशाश्रुतस्कन्ध महत्तरगा आणत्ता चिट्ठति, ते एवं वयंति जाव "सेणियस्स रनो एयमलैं पियं निवेदेज्जा, पियं भे भवतु" दोच्चंपि तच्चंपि एवं वदंति, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव विसं पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्राइगरे तित्थयरे जाव गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे जाव' विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासइ / तए णं महत्तरगा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता नामगोयं पुच्छंति, नाम-गोयं पुच्छित्ता नाम-गोयं पधारेंति, पधारित्ता एगओ मिलति एगो मिलित्ता एगंतमवक्कमति एगंतमवक्कमित्ता एवं वयासी-- ___ "जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भभसारे दंसणं कंखति, जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया दंसणं पीहेति, जस्स णं देवाणुप्पिया! सेणिए राया सणं पत्थेति, जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया दंसणं अभिलसति, जस्स णं देवाणुप्पिया! सेणिए राया नामगोत्तस्सवि सवणयाए जाव विसप्पमाणहियए भवति / से णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थयरे जाव सव्वण्णू सव्वदंसी पुग्वाणुपुठिय चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव रायगिहे नगरे बहिया गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सेणियस्स रण्णो एयमलै निवेदेमो-"पियं भे भवतु" ति कटु अण्णमन्नस्स वयणं पडिसुगंति, पडिसुणित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रागगिह-नगरं मझमझेणं जेणेव सेणियस्स रनो गिहे, जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलं परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धाति, वद्धावित्ता एवं वयासी-- "जस्स णं सामी ! दंसणं कंखति, जाब से णं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए जाव विहरति / एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियं निवेदेमो / पियं भे भवतु।" उस काल और उस समय में राजगह नाम का नगर था। नगर का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना / उस नगर के बाहर गुणशील नाम का चैत्य (उद्यान) था / उद्यान का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना / उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का राजा था। राजा का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना यावत् वह चेलणा महारानी के साथ परम सुखमय जीवन बिता रहा था। एक दिन श्रेणिक राजा ने स्नान किया यावत् कल्पवृक्ष के समान वह नरेन्द्र अलंकृत एवं 1. उववाईसूत्र सु. 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org