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________________ दसवों दशा] [95 हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। यही निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। कोई निर्ग्रन्थ केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो विचरते हुए यावत् एक स्त्री को देखता है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है यावत् निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करता है-- "पुरुष का जीवन दुःखमय है, क्योंकि जो ये विशुद्ध मात-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष हैं, वे किसी छोटे-बड़े युद्ध में जाते हैं और छोटे-बड़े शस्त्रों का प्रहार वक्षस्थल में लगने पर वेदना से व्यथित होते हैं / अतः पुरुष का जीवन दुःखमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है। यदि सम्यक् प्रकार से प्राचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में स्त्री सम्बन्धी इन उत्तम भोगों को भोगता हुआ विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे प्रायुष्मन् श्रमणो! वह निर्ग्रन्थ निदान करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यावत् उसे आगामी काल में सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। __ हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्ररूपित धर्म को नहीं सुन सकता है। निर्ग्रन्थी का पुरुषत्व के लिये निदान करना ___एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति / जस्स णं धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उवट्टिया विहरमाणी जावपासेज्जा जे इमे उग्गपुसा महामाउया भोगपुत्ता महामाउया जाव जं पासित्ता निग्गंथी णिदाणं करेंति-- "दुक्खं खलु इत्थित्तणए, दुस्संचराइं गामंतराइं जाव' सन्निवसंतराई। से जहानामए अंबपेसियाइ वा, मातुलिंगपेसियाइ वा, अंबाडगपेसियाइ वा, उच्छुखंडियाइ वा, संबलिफलियाइ वा बहुजणस्स प्रासायणिज्जा, पत्थणिज्जा, पीहणिज्जा, अभिलसणिज्जा / एवामेव इत्थिया वि बहुजणस्स प्रासायणिज्जा जाव' अभिलसणिज्जा तं दुक्खं खलु इत्थित्तणए, पुमत्तणए णं साहु / " 1. प्रथम निदान में देखें। 3. आ. श्रु. 2, प्र. 1, उ. 2, सु. 338 5. प्रथम निदान में देखें। 2. प्रथम निदान में देखें। 4. इसी निदान में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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