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________________ साथ ही अयोग्यकाल में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अनध्यायकाल की विवेचना की गई है। श्रमणश्रमणियों के बीच अध्ययन की सीमाएं निर्धारित की गई हैं। आहार का कवलाहारी, अल्पाहारी और ऊनोदरी का वर्णन है / प्राचार्य, उपाध्याय के लिए बिहार के नियम प्रतिपादित किये गये हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त की विधियों का इसमें विस्तृत विवेचन है / साध्वियों के निवास, अध्ययन, वैयावत्य तथा संघ-व्यवस्था के नियमोपनियम का विवेचन है। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाह माने जाते हैं। व्याख्यासाहित्य आगम साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों के उद्घाटन के लिये विविधव्याख्यासाहित्य का निर्माण हया है ! उस विराट आगम व्याख्यासाहित्य को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) नियुक्तियां (निज्जुत्ति)। (2) भाष्य (भास) / (3) चूणियां (चुण्णि)। (4) संस्कृत टीकाएं। (5) लोकभाषा में लिखित व्याख्यासाहित्य / सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएं लिखी गई वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है / उसकी शैली निक्षेपपद्धति की है। जो न्यायशास्त्र में अत्यधित प्रिय रही। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है--"नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं / वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।" नियुक्तिकार भद्रबाह माने जाते हैं। वे कौन थे इस सम्बन्ध में हमने अन्य प्रस्तावनाओं में विस्तार से लिखा है / भद्रबाहु की दस नियुक्तियां प्राप्त हैं / उसमें दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति भी एक है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति प्रथम श्रतकेवली भद्रबाह को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, श्रद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में शबल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में "गणि" और "सम्पदा" पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गणि और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। प्राचार ही प्रथम गणिस्थान है। सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं / शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है। पंचम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्तध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है। षष्ठ अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया गया है। उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार है। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो। यहां पर श्रमणोपासक की एकादश [60 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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