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________________ 56] [दशाश्रुतस्कन्ध तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रनो भंभसारस्स, चेल्लणादेवीए, तीसे य महइमहालयाए परिसाए, इसि-परिसाए, जइ-परिसाए, मुणि-परिसाए, मणुस्स-परिसाए, देव-परिसाए, अणेग-सयाए जाव धम्मो कहियो / परिसा पडिगया / सेणियराया पडिगरो। उस समय श्रेणिक राजा उन पुरुषों से यह संवाद सुनकर एवं अवधारण कर यावत् हर्षित हृदयवाला होकर सिंहासन से उठा / श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया। तदनन्तर उन पुरुषों का सत्कार और सन्मान किया। फिर उन्हें प्रीतिपूर्वक आजीविका योग्य विपुल दान देकर विसजित किया। बाद में नगररक्षक को बुलाकर इस प्रकार कहा-. "हे देवानुप्रिय ! राजगह नगर को अन्दर और बाहर से परिमाजित कर जल से सिञ्चित करो यावत् सिञ्चित कराकर मुझे सूचित करो यावत् वे सूचित करते हैं। उसके बाद राजा श्रेणिक ने सेनापति को बुलाकर इस प्रकार कहा "हे देवानुप्रिय ! हाथी, घोड़े, रथ और पदाति योधागण-इन चार प्रकार की सेनाओं को सुसज्जित करो" यावत् वे सूचित करते हैं। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने यानशाला के अधिकारी को बुलाकर इस प्रकार कहा___ "हे देवानुप्रिय ! श्रेष्ठ धार्मिक रथ को तैयार कर यहां उपस्थित करो और मेरी आज्ञानुसार हुए कार्य की मुझे सूचना दो।" उस समय यानशाला का प्रबन्धक श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर यावत् हर्षित हृदय वाला होकर जहां यानशाला थी वहां आया। उसने यानशाला में प्रवेश किया। यान (रथ) को देखा। यान को नीचे उतारा, प्रमार्जन किया। बाहर निकाला। एक स्थान पर स्थित किया और उस पर ढंके हुए वस्त्र को दूर कर यान को अलंकृत किया एवं सुशोभित किया। बाद में जहां वाहनशाला थी वहां आया। वाहनशाला में प्रवेश किया, वाहनों (बैलों) को देखा। उनका प्रमार्जन किया। उन पर बार-बार हाथ फेरे / उन्हें बाहर लाया। उन पर ढंके वस्त्र को दूर कर उन्हें अलंकृत किया एवं आभूषणों से मण्डित किया। उन्हें यान से जोड़ कर रथ को राजमार्ग पर लाया। चाबुक हाथ में लिए हुए सारथी के साथ यान पर बैठा। वहां से वह जहां श्रेणिक राजा था, वहां आया। हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा-- "स्वामिन् ! श्रेष्ठ धार्मिक यान तैयार करने के लिए आपने आदेश दिया था-वह यान (रथ) तैयार है। यह यान आपके लिए कल्याणकर हो / आप इस पर बैठे।" उस समय श्रेणिक राजा भंभसार यानशाला के अधिकारी से श्रेष्ठ धार्मिक रथ ले पाने का संवाद सुनकर एवं अवधारण कर हृदय में हर्षित एवं संतुष्ट हुआ यावत् (उसने) स्नानघर में प्रवेश किया। यावत् कल्पवृक्ष के समान अलंकृत एवं विभूषित वह श्रेणिक नरेन्द्र यावत् स्नानघर से निकला / जहां चेलणादेवी (महारानी) थी—वहां आया / उसने चेलणादेवी को इस प्रकार कहा "हे देवानुप्रिये ! पंचयामधर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर यावत् अनुक्रम से चलते हुए यावत् संयम और तप से आत्म-साधना करते हुए (गुणशीलचैत्य में) विराजित हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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