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________________ चार प्रकृत सूत्र में बताया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। यदि ममन करता है तो उसे प्रायश्चित्त पाता है। यदि आपवादिक कारणों से विहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो उसे यतना से गमन करना चाहिए। अवग्रहसूत्र में बताया है कि भिक्षा या शौचादि भूमि के लिए जाते हुए श्रमण को गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण करने की प्रार्थना करे तो उसे लेकर प्राचार्य आदि को प्रदान करे और उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर उसका उपयोग करे। रात्रिभक्त प्रकृत सूत्र में बताया है कि रात्रि या विकाल में प्रशन पान आदि ग्रहण करना नहीं चाहिए और न वस्त्र आदि को ग्रहण करना चाहिए। रात्रि और विकाल में अध्वगमन का भी निषेध किया गया है / अध्व के दो भेद हैं—पन्थ और मार्ग / जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न पाए वह पन्थ है और जिसके बीच ग्राम नगर आये वह मार्ग है। सार्थ के भंडी, बहिलक, भारवह, प्रौदरिक, कार्पटिक ये पांच प्रकार हैं। आठ प्रकार के सार्थवाह और पाठ प्रकार के सार्थ-व्यवस्थापकों का उल्लेख है। विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही विशेष रूप से उपयुक्त है। आर्य पद पर नाम आदि बारह निक्षेपों से विचार किया है / आर्य जातियां अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हरित, तन्तुण ये छह हैं और आर्य कुल भी उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसमें शालि ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुम्भ, शीतोदकविकटकुम्भ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के पाहारदि के त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजनसामग्री के दान की विधि, सामारिक का पिण्डग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाये हुए भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पांच प्रकार के वस्त्र-(१) जांगिक, (2) भांगिक, (3) सानक, (4) पोतक, (5) तिरीटपट्टक, पांच प्रकार के रजोहरण-(१) औणिक, (2) प्रौष्ट्रिक, (3) सानक, (4) वक्चकचिप्पक, (5) मुजचिप्पक-इनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बताई है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण-श्रमणियों की उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्याहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी उतना ही तीव्र कर्मबन्धन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता। अत: उसका अपवाद नहीं है / पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया है। पंचम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तविषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमन ग्रादि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त, पाहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं। षष्ठ उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त, कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम [65 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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