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________________ 4. भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी प्रावश्यक वस्तुएं / 5. कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से लाभ / 6. गच्छशतिकादि-आधार्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदाथिकमिश्र, क्रीतकृत, पूतिकार्मिक और प्रात्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद / 7. अनुयान रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष / 8. पुर:कर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष / 9. ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, चिकित्सा के लिए बैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका, रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले प्राचार्य को लगने वाले दोष और उनके प्रायश्चित्त का विधान / 10. गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा / 11. उपरिदोष-वर्षाऋतु के अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोष / 12. अपवाद-एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के प्रापवादिक कारण, श्रमण-श्रमणियों की भिक्षाचर्या की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही यह भी बताया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर दो भागों में विभक्त हो तो अन्दर और बाहर श्रमणियों के प्राचारसम्बन्धी विधि-विधानों पर प्रकाश डालते हए बताया है कि निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा, विहार-विधि, समुदाय का प्रमुख और उसके गुण, उसके द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना, बौद्ध श्रावकों द्वारा भड़ौच में श्रमणियों का अपहरण, श्रमणियों के योग्य क्षेत्र, वसति, विधर्मी से उपद्रव की रक्षा, भिक्षाहेतु जाने वाली श्रमणियों की संख्या, वर्षावास के अतिरिक्त श्रमणी को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितना रहना, उसका विधान हैं। स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौनसी अवस्था प्रमुख है, इस पर चिन्तन करते हुए भाष्यकार ने निष्पादक और निष्पन्न इन दोनों दृष्टियों से दोनों की प्रमुखता स्वीकार की है। सूत्र अर्थ आदि दृष्टियों से स्थविरकल्प जिनकल्प का निष्पादक है। जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रभृति दृष्टियों से निष्पन्न है। विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुहासिंह, दो महिलाएं और दो वर्गों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। ___एक प्राचौर और एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियों को नहीं रहना चाहिए, इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण-श्रमणियों को किस स्थान में रहना चाहिए, इस पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। व्यवशमन प्रकृत सूत्र में इस बात पर चिन्तन किया है कि श्रमणों में परस्पर वैमनस्य हो जाये तो उपशमन धारण करके क्लेश को शान्त करना चाहिए। जो उपशमन धारण करता है वह पाराधक है, जो नहीं करता है वह विराधक है। प्राचार्य को श्रमण-श्रमणियों में क्लेश होने पर उसकी उपशान्ति हेतु उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। परस्पर के झगड़े को शान्त करने की विधि प्रतिपादित की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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