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________________ के अवगहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके 144 भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है। ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, प्राकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर वियेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवधितमास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएं, समवसरण, तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ और अशुभ कर्मप्रकृतियां, तीर्थकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आफ्णगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तराफ्ण आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उनकी चर्चा की गई है। भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये है (1) उत्तानकमल्लक, (2) अवाङ मुखमल्लक, (3) सम्पुटमल्लक, (4) उत्तानकखण्डमल्लक, (5) अवाङ मुखखण्डमल्लक, (6) सम्पुटखण्डमल्लक, (7) भिति, (8) पडालि, (9) वलाभि, (10) अक्षाटक, (11) रुचक, (12) काश्यपक। तीर्थकर, गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जिनकल्पिक मुनि की समाचारी का वर्णन सत्ताईस द्वारों से किया है- (1) श्रुत, (2) संहनन, (3) उपसर्ग, (4) आतंक, (5) वेदना, (6) कतिजन, (7) स्थंडिल, (8) वसति, (9) कियाच्चिर, (10) उच्चार, (11) प्रस्रवण, (12) अवकाश, (13) तृणफलक, (14) संरक्षणता, (15) संस्थापनता, (16) प्राभृतिका, (17) प्राग्नि, (18) दीप, (19) अवधान, (20) वत्स्यक्ष, (21) भिक्षाचर्या, (22) पानक, (23) लेपालेप, (24) लेप, (25) प्राचाम्ल (26) प्रतिमा, (27) मासकल्प / जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हए क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है। स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं। श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हए विहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहार मार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभ शकून देखना आदि का वर्णन है। स्थविरकल्पिकों की समाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है१. प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका प्रायश्चित / 2. निष्क्रमण- उपाश्रय से बाहर निकलने का समय / 3. प्राभृतिका- गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है, उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त / [63 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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