________________ 78 [বগন 18. जो पापों से विरत दीक्षार्थी को और तपस्वी साधु को धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 19. जो अज्ञानी अनन्त ज्ञानदर्शनसम्पन्न जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद-निन्दा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 20. जो दुष्टात्मा अनेक भव्य जीवों को न्यायमार्ग से भ्रष्ट करता है और न्यायमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 21. जिन आचार्य या उपाध्यायों से श्रुत और आचार ग्रहण किया है, उनकी ही जो अवहेलना करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 22. जो व्यक्ति प्राचार्य उपाध्याय की सम्यक् प्रकार से सेवा नहीं करता है तथा उनका आदर-सत्कार नहीं करता है और अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 23. जो बहुश्रुत नहीं होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत, स्वाध्यायी और शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता कहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 24. जो तपस्वी नहीं होते हुए भी अपने आपको तपस्वी कहता है, वह इस विश्व में सबसे बड़ा चोर है, अत: वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 25. जो समर्थ होते हुए भी रोगी की सेवा का महान कार्य नहीं करता है अपितु 'मेरी इसने सेवा नहीं की है अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों करू" इस प्रकार कहता है, वह महामूर्ख मायावी एवं मिथ्यात्वी कलुषितचित्त होकर अपनी आत्मा का अहित करता है, ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 26. चतुर्विध संघ में मतभेद पैदा करने के लिए जो कलह के अनेक प्रसंग उपस्थित करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 27. जो श्लाघा या मित्रगण के लिए अधार्मिक योग करके वशीकरणादि का बार-बार प्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 28. जो मानुषिक और दैवी भोगों की अतृप्ति से उनकी बार-बार अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 29. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 30. जो अज्ञानी जिन देव की पूजा के समान अपनी पूजा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुअा भी कहता है कि "मैं इन सबको देखता हूँ," वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org