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________________ नवमी दशा [79 ये मोह से उत्पन्न होने वाले, अशुभ कर्म का फल देने वाले, चित्त की मलीनता को बढ़ाने वाले दोष कहे गये हैं / अतः भिक्षु इनका आचरण न करे, किन्तु आत्मगवेषी होकर विचरें / भिक्षु पूर्व में किये हुए अपने कृत्याकृत्यों को जानकर उनका पूर्ण रूप से परित्याग करे और उन संयमस्थानों का सेवन करे, जिनसे कि वह प्राचारवान् बने / जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह अपने दोषों को त्याग दे / जिस प्रकार 'प्राशिविष-सर्प', विष का वमन कर देता है / इस प्रकार दोषों को त्यागकर शुद्धात्मा, धर्मार्थो, भिक्षु मोक्ष के स्वरूप को जानकर इस लोक में कीर्ति प्राप्त करता है, और परलोक में सुगति को प्राप्त होता है / जो दृढ पराक्रमी, शूरवीर भिक्षु इन सभी स्थानों को जानकर उन मोहबन्ध के कारणों का त्याग कर देता है, वह जन्म-मरण का अतिक्रमण करता है, अर्थात् संसार से मुक्त हो जाता है / विवेचन-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने साधु-साध्वियों को सम्बोधित कर महामोहनीय कर्मबंध के तीस स्थान कहे हैं। यद्यपि यतनापूर्वक व्यवहार करने वाला भिक्षु सामान्य पापकर्म का भी बंध नहीं करता है तथापि उसे महामोहनीय कर्मबंध के स्थानों का कथन किया गया है, जिसका प्रयोजन यह है कि साधना-पथ पर चलते हुए भी कभी कोई भिक्षु कषायों के वशीभूत होकर क्लेश, ममत्व, अभिमान और दुर्व्यवहार आदि दोषों से दूषित हो सकता है। अतः शासन के समस्त साधुसाध्वियों को लक्ष्य में रखकर भगवान् ने इन तीस महामोहनीय कर्मबंध-स्थानों का कथन किया है एक से छह स्थानों में क्रूरता युक्त हिंसक वृत्ति को, सातवें स्थान में माया (कपट) को, आठवें स्थान में असत्य आक्षेप लगाने को, नवमें स्थान में न्याय के प्रसंग पर मिश्रभाषा के प्रयोग से कलहवृद्धि कराने को, दसवें, पन्द्रहवें स्थान में विश्वासघात करने को, ग्यारहवें, बारहवें, तेवीसवें, चौवीसवें और तीसवें स्थान में अपनी असत्य प्रशंसा करके दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति को, / तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें स्थान में कृतघ्नता को, सोलहवें, सत्रहवें स्थान में अनेकों के आधारभूत उपकारी पुरुष का घात करने को, अठारहवें स्थान में धर्म से भ्रष्ट करने को, उन्नीसवें स्थान में ज्ञानी (सर्वज्ञ) का अवर्णवाद (निन्दा) करने को, बीसवें स्थान में न्यायमार्ग से विपरीत प्ररूपणा करने को, इकवीसवें-बावीसवें स्थान में प्राचार्यादि की अविनय आशातना करने को, पच्चीसवें स्थान में शक्ति होते हुए कषायवश निर्दय बनकर रोगी की सेवा न करने को, छब्बीसवें स्थान में बुद्धि के दुरुपयोग से संघ में मतभेद पैदा करने को, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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