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________________ नवमी वशा] [77 6. जो किसी प्राणी को धोखा देकर के भाले से या डंडे से मारकर हँसता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 7. जो गूढ़ आचरणों से अपने मायाचार को छिपाता है, असत्य बोलता है और सूत्रों के यथार्थ अर्थों को छिपाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 8. जो निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या आक्षेप करता है, अपने दुष्कर्मों का उस पर आरोपण करता है अथवा 'तूने ही ऐसा कार्य किया है' इस प्रकार दोषारोपण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 9. जो कलहशील रहता है और भरी सभा में जान-बूझकर मिश्र भाषा बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 10. जो कूटनीतिज्ञ मंत्री राजा के हितचिन्तकों को भरमाकर या अन्य किसी बहाने से राजा को राज्य से बाहर भेजकर राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करता है, रानियों का शील खंडित करता है और विरोध करने वाले सामन्तों का तिरस्कार करके उनके भोग्य पदार्थों का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 11. जो बालब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने आपको बालब्रह्मचारी कहता है और स्त्रियों का सेवन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 12. जो ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी- "मैं ब्रह्मचारी हूँ" इस प्रकार कहता है, वह मानो गायों के बीच गधे के समान बेसुरा बकता है और अपनी आत्मा का अहित करने वाला वह मूर्ख मायायुक्त झूठ बोलकर स्त्रियों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 13. जो जिसका आश्रय पाकर आजीविका कर रहा है और जिसकी सेवा करके समृद्ध हुआ है, उसी के धन का अपहरण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 14. जो किसी स्वामी का या ग्रामवासियों का आश्रय पाकर उच्च स्थान को प्राप्त करता है और जिनकी सहायता से सर्वसाधनसम्पन्न बना है, यदि ईर्ष्यायुक्त एवं कलुषितचित्त होकर उन पाश्रयदाताओं के लाभ में अन्तराय उत्पन्न करता है तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 15. सर्पिणी जिस प्रकार अपने ही अण्डों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पालनकर्ता, सेनापति तथा कलाचार्य या धर्माचार्य को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 16. जो राष्ट्रनायक को, निगम के नेता को तथा लोकप्रिय श्रेष्ठी को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 17. जो अनेकजनों के नेता को तथा समुद्र में द्वीप के समान अनाथजनों के रक्षक का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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