________________ [वशाश्रुतस्कन्ध जंपि जाणे इतो पुव्यं, किच्चाकिच्चं बहुं जढं / तं वंता ताणि सेविज्जा, जेहि, आयारवं सिया // आयार-गुत्ती सुद्धप्पा, धम्मे ठिच्चा अणुत्तरे। ततो वमे सए दोसे, विसमासीविसो जहा // सुचत्तदोसे सुद्धप्पा, धम्मट्ठी विवितायरे / इहेव लभते कित्ति, पेच्चा य सुति वरं // एवं अभिसमागम्म, सूरा दढपरक्कमा। सव्वमोहविणिमुक्का, जाइमरणमतिच्छिया' // उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी / नगरी का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना चाहिए। पूर्णभद्र नाम का चैत्य (उद्यान) था। उद्यान का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना चाहिये। वहां कोणिक राजा राज्य करता था, उसके घारणी देवी पटरानी थी। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरते हुए वहां पधारे / परिषद् चम्पा नगरी से निकलकर धर्मश्रवण के लिये पूर्णभद्र चैत्य में पाई / भगवान् ने धर्म का स्वरूप कहा / धर्म श्रवण कर परिषद् चली गई। श्रमण भगवान महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा "हे आर्यो ! जो स्त्री या पुरुष इन तीस मोहनीय-स्थानों का सामान्य या विशेष रूप से पुन:पुनः आचरण करते हैं, वे महामोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं।" वे इस प्रकार हैं 1. जो कोई त्रस प्राणियों को जल में डुबोकर या प्रचण्ड वेग वाली तीव्र जलधारा में डालकर मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 2. जो प्राणियों के मुंह, नाक आदि श्वास लेने के द्वारों को हाथ आदि से अवरुद्ध कर अव्यक्त शब्द करते हुए प्राणियों को मारता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। 3. जो अनेक प्राणियों को एक घर में घेर कर अग्नि के धुए से उन्हें मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 4. जो किसी प्राणी के उत्तमांग-शिर पर शस्त्र से प्रहार कर उसका भेदन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 5. जो तीव्र अशुभ परिणामों से किसी प्राणी के सिर को गीले चर्म के अनेक वेष्टनों से वेष्टित करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 1. सम. 30, सु. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org