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________________ आठवी दशा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे याविहोत्था, तं जहा–१. हत्यत्तराहि चुए चइत्ता गम्भं बक्कते, 2. हत्युत्तराहि गम्भाओ गम्भं साहरिए, 3. हत्थुत्तराहि जाए, 4. हत्थुतराहि मुंडे भवित्ता प्रागाराओ अणगारियं पव्वइए, 5. हत्युत्तराहि अणते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदसणे समुप्पण्णे, 6. साइणा परिणिब्बुए भगवं जाव भज्जो भुज्जो उवदंसेइ / ___ अर्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पांच हस्तोत्तर (उत्तराफाल्गुनी) हुए थे अर्थात् भगवान् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यव कर गर्भ में पाए / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का एक गर्भ से दूसरे गर्भ में संहरण हुआ। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में जन्मे / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में मुडित होकर प्रागार धर्म से अणगार धर्म में प्रवजित हुए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् को अनन्त अनुत्तर निर्व्याघात निरावरण कृत्स्न परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुअा एवं स्वाति नक्षत्र में भगवान् परम निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त हुए यावत् भगवान् ने बारम्बार स्पष्ट रूप से समझाया। विवेचन--इस दशा का नाम "पर्युषणाकल्प" है। इसका उल्लेख ठाणांगसूत्र के दसवें ठाणे में है तथा दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति गाथा 7 में "कप्पो" ऐसा नाम भी उपलब्ध है। __ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र की सभी दशाओं में एक-एक विषय का ही निरूपण किया गया है। तदनुसार इस दशा में भी “पर्युषणाकल्प" सम्बन्धी एक विषय का ही प्रतिपादन स्थविर भगवन्त श्री भद्रबाहुस्वामी ने किया है / नियुक्तिकार के समय तक उसका वही रूप रहा है। नियुक्तिकार ने इस दशा में संयम-समाचारी के कुछ विषयों का विवेचन किया है और प्रारम्भ में "पर्युषण" शब्द की व्याख्या की है। सम्पूर्ण सूत्र की नियुक्ति गाथा 67 हैं। जिनमें प्रारम्भ की 23 गाथाओं में केवल 'पर्युषण' का विस्तृत विवेचन है। वर्तमान में उपलब्ध संक्षिप्त पाठ की रचना में सम्पूर्ण कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प-सूत्र) का समावेश किया गया है। उस कल्पसूत्र में 24 तीर्थंकरों के जीवन का वर्णन है। उनमें भगवान् महावीर के पांच कल्याणकों का विस्तृत वर्णन है और शेष तीर्थकरों के कल्याणकों का संक्षिप्त वर्णन है। बाद में यह भी सूचित किया है कि भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुए 980 वर्ष बीत गये हैं और पार्श्वनाथ भगवान् को मोक्ष गये 1230 वर्ष बीत गये हैं। तदनन्तर संवत्सर सम्बन्धी मतभेद का भी कथन है / वीरनिर्वाण के बाद एक हजार वर्ष की अवधि में हुए आचार्यों की स्थविरावली है। उनमें भी मतभेद और संक्षिप्त-विस्तृत वाचनाभेद है। अन्त में चातुर्मास समाचारी है। चिन्तन करने पर इन विभिन्न विषयों के बारह सौ श्लोक प्रमाण जितनी बड़ी आठवीं दशा का होना उचित प्रतीत नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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