________________ सातवों वशा] प्रथम सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार यावत् शारीरिक सामर्थ्य से सहन करे। उसे निर्जल उपवास करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर उत्तानासन, पासिन या निषद्यासन से कायोत्सर्ग करके स्थित रहना चाहिए। - वहाँ यदि देव, मनुष्य या तिथंच सम्बन्धी उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है। यदि मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे धारण करना या रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र त्यागना कल्पता है। पुनः यथाविधि अपने स्थान पर पाकर उसे कायोत्सर्ग करना कल्पता है। ___ इस प्रकार यह प्रथम सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा यथासूत्र यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। द्वितीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं दोच्चा सत्तराइंदिया वि। नवरं-दंडाइयस्स वा, लगडसाइस्स वा, उक्कुडुयस्स वा ठाणं ठाइत्तए / सेसं तं चेव जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / इसी प्रकार दूसरी सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा का भी वर्णन है। विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधनकाल में दण्डासन, लकुटासन अथवा उत्कुटुकासन से स्थित रहना चाहिए / शेष पूर्ववत् यावत् जिनाज्ञा के अनुसार (यह प्रतिमा) पालन की जाती है। तृतीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं तच्चा सत्तराईदिया वि। नवरं-गोदोहियाए वा, धीरासणीयस्स वा, अंबखुज्जस्स वा ठाणं इत्तए / सेसं तं चेव जाब अणुपालित्ता भवइ / इसी प्रकार तीसरी सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा का भी वर्णन है / विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधनकाल में गोदोहनिकासन, वीरासन या प्राम्रकुब्जासन से स्थित रहना चाहिए। शेष पूर्ववत् यावत् यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं अहोराइयावि। नवरं-छठेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसि पभारगएणं काएणं दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए / सेसं तं चेव जाव अणुपालित्ता भवइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org