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________________ સારાંશ इस सूत्र के नाम पागम में दो प्रकार से हैं-१. दसा, 2. प्राचारदशा, किन्तु इसी के आधार से इसका पूरा नाम दशाश्रुतस्कन्ध कहा जाता है / यह पूरा नाम प्राचीन व्याख्या ग्रन्थों आदि में उपलब्ध नहीं है अतः यह अर्वाचीन प्रतीत होता है / इस सूत्र के दस अध्ययन हैं, जिनको पहली दशा यावत् दसवीं दशा कहा जाता है। पहली दशा में 20 असमाधिस्थान हैं। दूसरी दशा में 21 सबलदोष हैं। तीसरी दशा में 33 अाशातना हैं / चौथी दशा में प्राचार्य की आठ सम्पदा हैं और चार कर्तव्य कहे गए हैं तथा चार कर्तव्य शिष्य के कहे गए हैं। पांचवी दशा में चित्त की समाधि होने के 10 बोल कहे हैं। छट्ठी दशा में श्रावक की 11 प्रतिमाएं हैं। सातवी दशा में भिक्षु की 12 पडिमाएं हैं। पाठवीं दशा का सही स्वरूप व्यवच्छिन्न हो गया या विकृत हो गया है। इसमें साधुओं की समाचारी का वर्णन था। नौवीं दशा में 30 महामोहनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। दसवीं दशा में 9 नियाणों का निषेध एवं वर्णन है तथा उनसे होने वाले अहित का कथन है / प्रथम दशा का सारांश साध्वाचार (संयम) के सामान्य दोषों को या अतिचारों को यहां असमाधिस्थान कहा है। जिस प्रकार शरीर की समाधि में बाधक सामान्य पीड़ाएं भी होती हैं और विशेष बड़े-बड़े रोग भी होते हैं यथा--१. सामान्य चोट लगना, कांटा गड़ना, फोड़ा होना, हाथ पांव अंगुली प्रादि अवयव दुखना, दांत दुखना और इनका अल्प समय में ठीक हो जाना, 2. अत्यन्त व्याकुल एवं अशक्त कर देने वाले बड़े-बड़े रोग होना / उसी प्रकार सामान्य दोष अर्थात् संयम के अतिचारों (अविधियों) को इस दशा में असमाधिस्थान कहा गया है। इनके सेवन से संयम निरतिचार नहीं रहता है और उसकी शुद्ध पाराधना भी नहीं होती है। बीस असमाधिस्थान 1. उतावल से (जल्दी जल्दी) चलना, 2. अंधकार में चलते वक्त प्रमार्जन न करना, 3. सही तरीके से प्रमार्जन न करना, 4. अनावश्यक पाट आदि लाना या रखना, 5. बड़ों के सामने बोलना, 6. वृद्धों को असमाधि पहुंचाना, 7. पांच स्थावर कायों की बराबर यतना नहीं करना अर्थात् उनकी विराधना करना करवाना, 8. क्रोध से जलना अर्थात मन में क्रोध रखना, 9. क्रोध करना अर्थात वचन या व्यवहार द्वारा क्रोध को प्रकट करना, 10. पीठ पीछे निन्दा करना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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