SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विच्छन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भी विच्छन्न हो गये -अर्थात् ये दोनों प्रायश्चित्त अव नहीं दिये जाते हैं। शेष आठ प्रायश्चित्त तीर्थ (चतुर्विधसंघ) पर्यन्त दिये जायेंगे। पुलाक को व्युत्सर्मपर्यन्त छह प्रायश्चित्त दिए जाते थे। प्रतिसेवकबकुश और प्रतिसेवनाकुशील को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। स्थविरों को अनबस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते; शेष आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। निर्ग्रन्थ को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जा सकते हैं-१ आलोचना, 2 विवेक / स्नातक केवल एक प्रायश्चित्त लेता है-विवेक / उन्हें कोई प्रायश्चित्त देता नहीं है।' 1 सामायिकचारित्र वाले को छेद और मूल रहित आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 2 छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 3 परिहारविशुद्धिचारित्र वाले को मूलपर्यन्त पाठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 4 सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाले को तथा 5 यथाख्यातचारित्र वाले को केवल दो प्रायश्चित दिये जाते हैं१ अालोचना और 2 विवेक / ये सब व्यवहार्य हैं / 2 व्यवहार के प्रयोग व्यवहारज्ञ जब उक्त व्यवहारपंचक में से किसी एक व्यवहार का किसी एक व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य श्रमण या श्रमणी) के साथ प्रयोग करता है तो विधि के निषेधक को या निषेध के विधायक को प्रायश्चित्त देता है तब व्यवहार शब्द प्रायश्चित्त रूप तप का पर्यायवाची हो जाता है। अतः यहाँ प्रायश्चित्त रूप तप का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। 1 गुरुकः, 2 लघुक, 3 लघुस्वक / गुरुक के तीन भेद 1 गुरुक, 2 गुरुतरक और 3 यथागुरुक / गाहा---पालोयणपडिक्कमणे, मीस-विवेगे तहेव विउस्सग्गे / एएछ पच्छित्ता, पूलागनियंठाय बोधव्वा / / बउसपडिसेवगाणं, पायच्छिन्ना हवं ति सव्वे वि / भवे कप्पे, जिणकप्पे अहा होति / / पालोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे / विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तितो॥ -व्यव० 10 भाष्य गाथा 357, 58, 59 सामाइयसंजयाणं, पायच्छित्ता, छेद-मूलरहियट्ठा / थेराणं जिणाणं पुण, मूलत अव्हा होई॥ परिहारविसुद्धीए, मूलं ता अट्टाति पच्छित्ता। थेराणं जिणाणं पुण, जविहं छेयादिवज्ज वा / / पालोयणा-विवेगो य तइयं तु न विज्जती। सुहुमेय संपराए, अहक्खाए तहेव य // -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 361-62-63-64 / [ 24 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy