________________ आठवों दशा] यहाँ प्रस्तुत संस्करण में जो संक्षिप्त मूल पाठ है वह पर्युषणाकल्पसूत्र का प्रथम सूत्र और अन्तिम सूत्र लेकर संकलित किया हुआ है / यह परम्परा का पालन मात्र है। आगमों के सूत्रपाठ का एक अक्षर भी आगे-पीछे, कम-ज्यादा, इधर-उधर करना बहुत बड़ा दोष-ज्ञानातिचार माना गया है। फिर भी समय-समय पर अनेक ऐसे प्रक्षेप आगमों में हुए हैं। उनमें का यह भी एक उदाहरण है। यहां जो कुछ लिखा है वह अपनी अल्प जानकारी एवं सामान्य अनुभवों के अनुसार लिखा है, विद्वान् विशेषज्ञों को इसमें जो यथार्थ लगे उसे ही समझने का एवं धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। उपलब्ध कल्पसूत्र का 291 वां अन्तिम उपसंहार सूत्र जो है, उसका भावार्थ यह है "यह सम्पूर्ण (1200 श्लोकप्रमाण का पर्युषणाकल्पसूत्र) अध्ययन (आठवीं दशा) भगवान् महावीर स्वामी ने राजगृह नगर में देवयुक्त परिषद् में बारम्बार कहा।" इस उपसंहार सूत्र को मनीषी पाठक पढ़कर आश्चर्य करेंगे कि भगवान के जीवन का सारा वर्णन उनके ही मुख से परिषद में कहलाना और निर्वाण के 980 वर्ष या 993 वर्ष बीतने का कथन, स्थविरों की वंदना के पाठ सहित स्थविरावली तथा असंगत पाठों से युक्त समाचारी को महावीर के श्रीमुख से कहलवाना और उसी आठवीं दशा को 14 पूर्वी भद्रबाहुरचित कहना कितना बेतुका प्रयास है / जिसे कि किसी भी तरह सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता है। ___ यह कल्पसूत्र भगवान महावीर ने राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में बारम्बार कहा था, तो किस दिन कहा ? क्या एक ही दिन में कहा या अलग-अलग दिनों में कहा ? और बारम्बार क्यों कहा ?-इत्यादि प्रश्नों का सही समाधान कुछ नहीं मिल सकता है। नियुक्तिकार ने इस दशा के जिन-जिन विषयों की व्याख्या की है उनसे भी उक्त प्रश्नों का यथार्थ निर्णय नहीं हो पाता। नियुक्ति की ६१वीं उपसंहार-गाथा है उसके बाद उपलब्ध 6 गाथाओं को भी मौलिक नहीं कहा जा सकता। 61 गाथाओं में प्राये विषयों का सारांश इस प्रकार है 1. साधु-साध्वी को वर्षावास के एक महीना बीस दिन बीतने पर अर्थात् भादवा सुदी पंचमी को पर्युषणा (संवत्सरी) करनी चाहिए। 2. साधु-साध्वी जिस मकान में चातुर्मास निवास करें, वहाँ से उन्हें प्रत्येक दिशा में प्राधा कोस सहित आधा योजन से आगे नहीं जाना चाहिए। 3. चातुर्मास में साधु-साध्वी को विगय का सेवन नहीं करना चाहिए। रोगादि कारण से विगय सेवन करना हो तो प्राचार्यादि की आज्ञा लेकर ही करना चाहिए। 4. वर्षावास में साधु-साध्वी को शय्या, संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है / अर्थात् जीवरक्षा हेतु आवश्यक समझना चाहिए। 5. वर्षावास में साधु-साध्वी को तीन मात्रक ग्रहण करना कल्पता है, यथा-१. उच्चार (बड़ी नीत का) मात्रक, 2. प्रश्रवणमात्रक, 3. खेल-कफमात्रक / 6. साधु-साध्वी को पर्युषणा के बाद गाय के रोम जितने बाल रखना नहीं कल्पता है / अर्थात गाय के रोम जितने बाल हों तो भी लोच करना आवश्यक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org