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________________ चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योगशास्त्र से उनकी तुलना की जाये तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए प्राचारदशा के दस अध्ययनों में ये चार अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा श्राबक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं / पर्युषणाकल्प में पर्युषण रब करना चाहिये, कैसे मनाना चाहिये...? कब मनाना चाहिये, इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। सबलदोष और आशातना इन दो दशानों में साधुजीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिये। इनमें जो त्याज्य हैं, उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिये और जो उपादेय हैं, उनका पालन करना चाहिये। चतुर्थ दशागणिसंपदा में आचार्यपद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। प्राचार्यपद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को प्राचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) सत्र श्रमणजीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकारान्तर से दशाश्रतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य का उल्लेख इस रूप में भी हो सकता हैप्रथम तीन दशानों और अंतिम दो दशाओं में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। चौथी दशा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिये उपादेयाचार का कथन है। पांचवी दशा में उपादेयाचार का निरूपण है। छठी दशा में अनगार के लिये जयाचार और सागार (श्रमणोपासक) के लिये उपादेयाचार का कथन है। सातवी दशा में अनगार के लिये उपादेयाचार और सागार के लिये ज्ञेयाचार का कथन किया है। आठवीं दशा में अनगार के लिये कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार है। इस प्रकार यह आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध अनगार और सागार दोनों के लिये उपयोगी है। कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों में भी हेय, ज्ञेय और उपादेय प्राचार का कथन किया गया है। (2) बृहत्कल्पसूत्र कल्प शब्द अनेक अर्थों का बोधक है, इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। वेद के छहः अंग हैं उनमें एक वह अंग है जिसमें यज्ञ प्रादि कर्मकाण्डों का विधान है, वह अंग कल्प कहलाता है। कालमान के लिये भी कल्प शब्द का प्रयोग मिलता है। चौदह मन्वन्तरों का कालमान कल्प शब्द से जाना जाता है। उसमें चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष बीत जाते हैं। इतने लम्बे काल की संज्ञा को कल्प कहा है। सदृश अर्थ में भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि श्रमणकल्प, ऋषिकल्प इत्यादि / कल्प शब्द उस वृक्ष के लिए भी प्रयुक्त होता है जो वृक्ष मनोवांछित फल देने वाला है, वह कल्पवृक्ष कहलाता है। राज्यमर्यादा के लिए भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है। बारहवें देवलोक तक राजनीति की मर्यादा है। इसी कारण उन देवलोकों को 'कल्प देवलोक' कहा जाता है। मर्यादा वैधानिकरीति से जो भी कोई जीवन चलाता है, वह अवश्य ही सुख और सम्पत्ति से समृद्ध बन जाता है। प्रस्तुत शास्त्र का नाम जिस कल्प शब्द से चरितार्थ किया है, वह उपर्युक्त अर्थों से बिल्कुल भिन्न है। [13] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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