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________________ चौथी दशा] (29 4. प्र..-भगवन् ! दोषनिर्घातना-विनय क्या है ? उ०-दोषनिर्घातना-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. क्रुद्ध व्यक्ति के क्रोध को दूर करना। 2. दुष्ट व्यक्ति के द्वेष को दूर करना / 3. आकांक्षा वाले व्यक्ति की आकांक्षा का निवारण करना / 4. अपनी आत्मा को संयम में लगाये रखना / यह दोषनिर्घातना-विनय है। विवेचन--पाठ संपदाओं से संपन्न भिक्षु को जब प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है तब वह संपूर्ण संघ का धर्मशास्ता हो जाता है। तब उसे भी संघ संरक्षण एवं संवर्धन के अनेक कर्तव्यों के उत्तरदायित्व निभाने होते हैं / उनके प्रमुख उत्तरदायित्व चार प्रकार के हैं 1. आचारविनय, 2. श्रुतविनय, 3. विक्षेपणाविनय, 4. दोषनिर्घातनाविनय / 1. आचारविनय-गणी (प्राचार्य) का मुख्य कर्तव्य है कि सबसे पहले शिष्यों को प्राचार सम्बन्धी शिक्षाओं से सुशिक्षित करे / वह अाचार संबंधी शिक्षा चार प्रकार की है 1. संयम की प्रत्येक प्रवृत्ति के विधि-निषेधों का ज्ञान कराना, काल-अकाल का ज्ञान कराना / महाव्रत, समिति, गुप्ति, यतिधर्म, परीषहजय प्रादि का यथार्थ बोध देना। 2. अनेक प्रकार की तपश्चर्यानों के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराना। तप करने की शक्ति और उत्साह बढ़ाना। निरन्तर तपश्चर्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए आगमोक्त क्रम से तपश्चर्या की एवं पारणा में परिमित पथ्य आहारादि के सेवन की विधि का ज्ञान कराना। 3. गीतार्थ अगीतार्थ भद्रिक परिणामी आदि सभी को संयमसाधना निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिए आचारशास्त्रों तथा छेदसूत्रों के आधार से बनाये गये गच्छ सम्बन्धी नियमों उपनियमों (समाचारी) का सम्यक् ज्ञान कराना। 4. गण की सामूहिकचर्या को त्यागकर एकाकी विहारचर्या करने की योग्यता का, वय का तथा विचरणकाल में सावधानियाँ रखने का ज्ञान कराना एवं एकाकीविहार करने की क्षमता प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान कराना। क्योंकि भिक्षु का द्वितीय मनोरथ यह है कि "कब मैं गच्छ के सामूहिक कर्तव्यों से मुक्त होकर एकाकीविहारचर्या धारण करूं।" अत: एकाकी विहारचर्या की विधि का ज्ञान कराना आचार्य का चौथा प्राचारविनय है। आचारांगसूत्र श्र. 1, अ. 5 और 6 में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की एकाकीविहारचर्या के लक्षण बताये गये हैं। उनमें से अप्रशस्त एकल विहारचर्या के वर्णन को लक्ष्य में रखकर एकलविहारचर्या के निषेध की परम्परा प्रचलित है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र, द्वितीय मनोरथ तथा गणव्युत्सर्ग तप वर्णन के अनुसार एकलविहारचर्या का सर्वथा विरोध करना आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता। इस पाठ की व्याख्या में भी स्पष्ट उल्लेख है कि प्राचार्य एकाकीविहारचर्या धारण करने के लिये दूसरों को उत्साहित करे तथा स्वयं भी अनुकूल अवसर पर निवृत्त होकर इस चर्या को धारण करे। इस सूत्र की नियुक्ति, चूणि के सम्पादक मुनिराज भी यही सूचित करते हैं कि एकान्त निषेध उचित नहीं है। ___ यह प्राचार्य का चार प्रकार का "आचार-विनय" है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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