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________________ 62] [दशाश्रुतस्कन्ध आवश्यकतानुसार प्राहार-पानी की दत्ति ग्रहण की जा सकती है। इसके सिवाय सभी प्रतिमाधारी के पालन योग्य सोलह सामान्य नियम हैं, जो प्रथम प्रतिमा के वर्णन में कहे गये हैं 1. भिक्षादाता का एक पैर देहली के अन्दर हो और एक पैर देहली के बाहर हो; पात्र में एक व्यक्ति का ही भोजन हो, गर्भवती, छोटे बच्चे वाली या स्तनपान कराती हुई स्त्री न हो तथा उस समय अन्य कोई भिक्षाचर भ्रमण न कर रहे हों तो भिक्षा ग्रहण करना कल्पता है। 2. यदि 12 घण्टों का दिन हो तो 4-4 घण्टों के तीन विभाग करें। प्रथम विभाग-सुबह 6 बजे से 10 बजे तक, दूसरा विभाग-दोपहर 10 बजे से 2 बजे तक, तीसरा विभाग-२ बजे से 6 बजे तक / इन तीन विभागों में से किसी एक विभाग में ही भिक्षाचरी ग्रहण करना तथा खाना कल्पता है, शेष दो विभागों में नहीं कल्पता है। 3. गोचरी के लिए भ्रमण करने के छह प्रकारों में से किसी एक प्रकार से गोचरी करने का निश्चय कर लेने पर ही गोचरी जाना कल्पता है। 4. प्रतिमा आराधनकाल में भिक्षु एक या दो दिन से अधिक किसी ग्रामादि में नहीं ठहर सकता है, निरन्तर पाठ मास तक विचरण करता ही रहता है। इस मर्यादा का उल्लंघन करने पर उसे तप या छेद का प्रायश्चित्त पाता है। इस कारण से ही ये प्रतिमाएँ चातुर्मासकाल के सिवाय पाठ मास में ही प्रारम्भ करके पूर्ण कर ली जाती हैं। 5. प्रतिमाधारी भिक्षु आठ मास तक सूत्रोक्त चार कारणों के अतिरिक्त मौन रह कर ही व्यतीत करता है / जब कभी बोलता है तो सीमित बोलता है। चलते समय बोलना आवश्यक हो तो रुककर बोल सकता है / प्रतिमाराधनकाल में विचरण करते हुए वह धर्मोपदेश नहीं देता है। क्योंकि प्रत्येक विशिष्ट साधना में मौन को ही ध्यान व प्रात्मशान्ति का मुख्य साधन माना गया है। इसलिए प्रतिमाधारी भिक्षु निवृत्त होकर अकेला ही साधना करता है। 6. प्रतिमाधारी भिक्षु ग्रामादि के बाहर-१. बगीचे में, 2. चौतरफ से खुले मकान में अथवा 3. वृक्ष के नीचे ठहर सकता है / इन तीन स्थानों के सिवाय उसे कहीं भी ठहरना नहीं कल्पता है। सूत्र में “अहे" शब्द है, इसका यहां यह अर्थ है कि ठहरने का स्थान यदि चौतरफ से खुला भी हो किन्तु ऊपर से पूर्ण आच्छादित होवे, ऐसे स्थान में ही भिक्षु निवास करे। वृक्ष कहीं सघन छाया वाला होता है और कहीं विरल छाया वाला होता है / अतः विवेकपूर्वक आच्छादित स्थान में रहे। 7. प्रतिमाधारी भिक्षु भूमि पर या काष्ठ के पाट आदि पर अपना पासन आदि बिछाकर बैठ सकता है या सो सकता है। तृणादि के संस्तारक यदि बिछाये हुए मिल जाएं तो आज्ञा लेकर पहले उसकी प्रतिलेखना करे और बाद में उसको उपयोग में ले / अन्य स्थान से याचना करके लाना उसे नहीं कल्पता है। 8. प्रतिमाधारी भिक्षु ग्रामादि से बाहर बगीचे में, खुले मकान में या वृक्ष के नीचे एकान्त स्थान देखकर ठहरा हो और बाद में वहां कोई भी स्त्री या पुरुष आकर ठहर जाय तथा बातचीत या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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