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________________ दूसरी दशा] [15 18. कंद, मूल आदि भक्षण-वनस्पति के दस विभागों को खाने पर भिक्षु को शबल दोष लगता है। गृहस्थ के लिए बने वनस्पति के अचित्त खाद्य पदार्थ साधु ग्रहण करके क्षुधा शान्त कर सकता है। किन्तु अचित्त खाद्य न मिलने पर सचित्त फल, फूल, बीज या कंद, मूल आदि खाना साधु को नहीं कल्पता है। क्योंकि वह जीवनपर्यन्त सचित्त का त्यागी होता है। उत्तराध्ययन अ. 2 में प्रथम परीषह का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "क्षुधा से व्याकुल भिक्षु का शरीर इतना कृश हो जाए कि शरीर की नसें दिखने लग जाएँ, तो भी वह वनस्पति का छेदन न स्वयं करे, न दूसरों से करावे तथा खाद्य पदार्थ न स्वयं पकावे, न अन्य से पकवावे / " उदरपूति के वनस्पति का छेदन-भेदन करके खाना भिक्ष के लिये सर्वथा निषिद्ध है. क्योंकि छेदन-भेदन करने से वनस्पतिकाय के जीवों के प्रति अनुकम्पा नहीं रहती है। अतः प्रथम महाव्रत भंग होता है। अनजाने भी सचित्त बीज आदि खाने में आ जाय तो उसका निशीथसूत्र उद्देशक 4, 10 तथा 12 में प्रायश्चित्त कहा गया है। यहाँ जानबूझ कर खाने को शबल दोष कहा गया है। अतः भिक्षु को सचित्त पदार्थ खाने का संकल्प भी नहीं करना चाहिये। 19-20. उदकलेप-मायासेवन–९वें, १०वें शबल दोष में एक मास में तीन बार उदकलेप और मायासेवन को शबल दोष कहा है, यहाँ एक वर्ष में दस बार सेवन को सबल दोष कहा है / 9 बार तक सेवन को शबल दोष नहीं कहने का कारण यह है कि विचरण के प्रथम मास में दो बार जो परिस्थिति बन सकती है, वैसी परिस्थिति आठ महीनों में विहार करते समय नव बार भी हो सकती है / 29 दिन के कल्प से रहने पर सात महीनों में सात बार और प्रथम महीने में दो बार विहार करना आवश्यक होने से एक वर्ष में नौ विहार आवश्यक होते हैं। अतः नव बार से अधिक उदकलेप और मायास्थानसेवन को यहाँ शबल दोष कहा है / शेष विवेचन पूर्ववत् है। 21. सचित्त जल से लिप्त पात्रादि से भिक्षा ग्रहण करना भिक्षा के लिये प्रविष्ट भिक्षु यदि यह जाने कि दाता का हाथ अथवा चम्मच, बर्तन आदि सचित्त जल से भीगे हुए हैं तो उससे उसे भिक्षा ग्रहण करना नहीं कल्पता है। ऐसा निषेध दशवै. अ. 5 तथा आचारांग श्रु. 2 अ. 1 उ. 6 में है। ऐसे लिप्त हाथ आदि से मिक्षा ग्रहण करने पर अप्काय के जीवों की विराधना होती है / खाद्य पदार्थों में सचित्त जल मिल जाने पर सचित्त खाने-पीने का दोष लगना और जीवविराधना होना ये दोनों ही संभव हैं। यह एषणा का “लिप्त" नामक नौवां दोष है। एषणा के दोष बीसवें असमाधिस्थान में भी कहे गये हैं, किन्तु यहाँ जीवविराधना की अपेक्षा से इसे शबल दोष कहा गया है। निशीथसूत्र के १२वें उद्देशक में इनका लघु चौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। ___ समवायांग सूत्र के २१वें समवाय में भी इन्हीं 21 शबल दोषों का वर्णन है, किन्तु यहाँ कहे गये पांचवें और ग्यारहवें शबल दोष को वहाँ क्रमश: ग्यारहवां और पांचवां शबल दोष कहा गया है। इन सब विशिष्ट शबल दोषों को संयम का विघातक जानकर तथा कर्मबंध का कारण जानकर भिक्षु त्याग करे और शुद्ध संयम की आराधना करे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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