________________ [वशाभुतस्कन्छ धूमहीणो जहा अग्गी, खोयति से निरिधणे / एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गए // 13 // सुक्क-मूले जहा रक्खे, सिंचमाणे ण रोहति / एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयं गए // 14 // जहा दड्डाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा / कम्म-बीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा // 15 // चिच्चा पोरालियं बोंदि, नाम-गोयं च केवली / पाउयं वेणिज्जं च, छित्ता भवति नीरए // 16 // एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय पाउसो / सेणि-सुद्धिमुवागम्म, आया सोधिमुवेहइ / / 17 / / -त्ति बेमि। हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है-उन निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने ऐसा कहा हैइस आर्हत प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने दस चित्तसमाधिस्थान कहे हैं। प्र०-भगवन् ! वे कौन से दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं ? उ.--ये दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं / जैसे-- उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नगर था / यहाँ पर नगर का वर्णन कहना चाहिए। उस वाणिज्यग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में तिपलाशक नाम का चैत्य था / यहाँ पर 'चैत्यवर्णन कहना चाहिये। वहाँ का राजा जितशत्रु था / उसकी धारणी नाम की देवी थी। इस प्रकार सर्व समवसरणवर्णन कहना चाहिए / यावत् पृथ्वी-शिलापट्टक पर वर्धमान स्वामी विराजमान हुए। धर्मोपदेश सुनने के लिए परिषद् निकली। भगवान् ने धर्म का निरूपण किया। परिषद् वापिस चली गई। हे पार्यो ! इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों से कहने लगे हे पार्यो ! निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को, जो कि ईर्यासमिति वाले, भाषासमिति वाले, एषणासमिति वाले, आदान-भाण्ड-मात्रनिक्षेपणासमिति वाले, उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिंघाणक-जल्ल-मल की परिष्ठापनासमिति वाले, मन:समिति वाले, वचनसमिति वाले, कायसमिति वाले, मनोगुप्ति वाले, वचनगुप्ति वाले, कायगुप्ति वाले तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, प्रात्मा का हित करने वाले, प्रात्मयोगी, प्रात्मपराक्रमी, पाक्षिकपौषधों में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले हैं / उन मुनियों को ये पूर्व अनुत्पन्न चित्तसमाधि के दस स्थान उत्पन्न हो जाते हैं / वे इस प्रकार हैं 1. पूर्व असमुत्पन्न (पहले कभी उत्पन्न नहीं हुई) ऐसी धर्म-भावना यदि साधु के मन में उत्पन्न हो जाय तो वह सर्व धर्म को जान सकता है, इससे चित्त को समाधि प्राप्त हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org