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________________ "अनः" प्रत्यय लगकर बना है। इसका अर्थ है, प्रात्ममज्जन, आत्मरमण या आत्मस्थ होना / पर्युषणकल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन या निरावलंबन रूप दो प्रकार का है। सालंबन का अर्थ है सकारण और निरावलंबन का अर्थ है कारणरहित / निरावलंबन के जघन्य और उत्कृष्ट दो भेद हैं। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-(१) परियाय वत्थवणा, (2) पज्जोसमणा, (3) पागइया, (4) परिवसना, (5) पज्जुसणा, (6) वासावास, (7) पढमसमोसरण, (8) ठवणा और (9) जेट्टोग्गह। ये सभी नाम एकार्थक हैं, तथापि व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर किंचित् अर्थभेद भी है और यह अर्थभेद पर्युषणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं एवं उस नियत काल में की जाने वाली क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण निदर्शन कराता है / इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं / पर्युषणा काल के आधार से कालगणना करके दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है। पर्युषणाकाल एक प्रकार का वर्षमान गिना जाता है। अत: पर्युषणा को दीक्षापर्याय की अवस्था का कारण माना है / वर्षावास में भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष क्रियाओं का आचरण किया जाता है अत: पर्युषणा का दूसरा नाम पज्जोसमणा है। तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह “पागइया" यानि प्राकृतिक कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावास--वर्षावास कहा गया है। कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं / ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। अतएव यह ठवणा (स्थापना) है / ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है। अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुंचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपर्युक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी- अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए / इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक तो वर्षावास प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हो तो वृक्ष के नीचे ही पयूषणाकल्प करना चाहिए / पर इस तिथि का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वर्तमान में जो पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है / [47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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