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________________ दूसरी बात दशाश्रुतस्कन्ध पर जो द्वितीय भद्रबाह की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है, उसमें और उस नियुक्ति के आधार से निर्मित प्रचलित है, उसके पदों की व्याख्या मिलती है। मुनि श्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कन्ध की चूणि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणो भगवं महावीरे.............."और अंतिम सूत्र में .............."भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ" पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें उद्देशक [दशा] में है। यहां पर शेष पाठ को “जाव" शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याणक का ही निरूपण है, जिसका पर्युषणाकल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः स्पष्ट है कि पर्युषणाकल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाह हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का पाठवा अध्ययन ही है / वृत्ति, चूणि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र को टीकाओं से यह स्पष्ट प्रमाणित है। नौवें उद्देशक में 30 महामोहनीय स्थानों का वर्णन है। आत्मा को प्रावत करने वाले पुदगल कर्म कहलाते हैं। मोहनीयकर्म उन सब में प्रमुख है। मोहनीयकर्मबंध के कारणों की कोई मर्यादा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा 70 कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते है। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीथस्थान कहा है।' किन्तु भेदों के उल्लेख में "महामोहं पकुव्वइ" शब्द का प्रयोग हुआ है। वे स्थान जैसे कि त्रस जीवों को पानी में डबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि वाँधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना आदि हैं। दशवें उद्देशक दिशा का नाम "आयतिस्थान" है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प / जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उदभूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प करता है। यह संकल्पविशेष ही निदान है। निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम प्रायतिस्थान रखा गया है। प्रायति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से "ति" पृथक कर लेने पर 'पाय" अवशिष्ट रहता है। प्राय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। इस दशा में वर्णन है कि भगवान् महावीर राजगह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी चेलना भगवान के वन्दन हेतु पहुंचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगेश्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप, नियम और संयम आदि का फल हो तो हम भी 1. तीसं मोह-ठणाई-अभिक्खणं-अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेई / --दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ३२१-उपा. आत्मारामजी महाराज [48 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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