________________ प्रथम दशा] जीवोत्पत्ति होने की संभावना रहती है। उन जीवों के संघर्षण, संमर्दन से संयम की क्षति होती है। अतः आवश्यकता से अधिक शय्या-संस्तारक रखना चौथा असमाधिस्थान है।। (5) रत्नाधिक के सामने बोलना-दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ भिक्षुत्रों के समक्ष अविनयपूर्वक बोलना अनुचित है / दशव. अ. 8 तथा अ. 9 में रत्नाधिक भिक्षु के विनय करने का विधान है तथा नि. उ. 10 में रत्नाधिक भिक्षु की किसी प्रकार से आशातना करने पर गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है / अतः रत्नाधिक के समक्ष भाषण करना पांचवां असमाधिस्थान है। (6) स्थविरों का उपघात करना–वृद्ध (स्थविर) भिक्षु दीक्षा-पर्याय में चाहे छोटे हों या बड़े हों, उनकी चित्तसमाधि का पूर्ण ध्यान रखना अत्यावश्यक है। उनका हृदय से सम्मान करना और सेवा की समुचित व्यवस्था करना सभी श्रमणों का परम कर्तव्य है। उनका मन अशान्त रहे, इस प्रकार का व्यवहार करना छठा असमाधिस्थान है। (7) छह काय के जीवों का हनन करना-श्रमण के लिए किसी भी त्रस-स्थावर प्राणी को त्रस्त करने की प्रवृत्ति करना सर्वथा निषिद्ध है, क्योंकि वह छह काय का प्रतिपालक होता है / अत: पृथ्वीकाय आदि स्थावर और त्रस प्राणियों की हिंसा करना सातवां असमाधिस्थान है। (8-9) क्रोध से जलना और कटु वचन बोलना--किसी के प्रति क्रोध से संतप्त रहना तथा कठोर वचन बोलकर क्रोध प्रकट करना, ये दोनों ही समाधि भंग करने वाले हैं। अतः मन में क्रोध करना और कट वचन कहकर क्रोध व्यक्त करना पाठवां एवं नौवां असमाधिस्थान है। (10) पीठ पीछे किसी की निन्दा करना-यह अठारह पापों में से पन्द्रहवां पापस्थान है। सूयगडांग श्रु. 1, अ. 2, उ. 2 में परनिन्दा को पाप कार्य बताते हुए कहा है कि "जो दूसरों की निन्दा करता है या अपकीति करता है, वह संसार में परिभ्रमण करता है।" एक कवि ने कहा है निंदक एक हु मत मिलो, पापी मिलो हजार / इक निंदक के शीश पर, लख पापी को भार / / निन्दा करने वाला स्वयं भी कर्मबंध करता है तथा दूसरों को भी असमाधि उत्पन्न करके कर्मबंध करने का निमित्त बनता है / दशव. अ. 10 में कहा है 'न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज्जन तं वइज्जा।' अर्थात्-यह कुशील (दुराचारी) है, इत्यादि वचन बोलना तथा दूसरे को क्रोध की उत्पत्ति हो, ऐसे वचन बोलना भिक्षु को उचित नहीं है / यह दसवां असमाधिस्थान है। 11. बार-बार निश्चयात्मक भाषा बोलना—भिक्षु को जब तक किसी विषय की पूर्ण जानकारी नहीं हो, तब तक निश्चयात्मक भाषा बोलने का दशवै. अ. 7 में निषेध किया है तथा जिस विषय में पूर्ण निश्चय हो जाए, उसका निश्चित शब्दों में कथन किया जा सकता है। निश्चयात्मक भाषा के अनुसार परिस्थिति न होने पर जिनशासन की निन्दा होती है, बोलने वाले का अवर्णवाद होता है, कई बार संघ में विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, अनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावना रहती है / अतः भिक्षु का निश्चयात्मक भाषा बोलना ग्यारहवां असमाधिस्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org