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________________ 64] [वशाभूतस्कन्ध 14. प्रतिमाधारी भिक्षु को हाथ पैर मुह आदि को अचिस जल से धोना भी नहीं कल्पता है। किन्तु अशुचि के लेप को दूर कर सकता है तथा भोजन के बाद हाथ मुंह को धो सकता है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सामान्य भिक्षु को भी उक्त दो कारणों के बिना हाथ पैर आदि धोना नहीं कल्पता है तो प्रतिमाधारी के लिये इस नियम में क्या विशेषता है ? इसका समाधान यह है कि सामान्य भिक्ष अपवाद सेवन कर सकता है किन्तु प्रतिमाधारी अपवाद सेवन नहीं कर सकता है। सामान्य भिक्ष आपवादिक स्थिति में रोगोपशांति के लिये औषध सेवन और अंगोपांग पर जलसिंचन या उनका प्रक्षालन भी कर सकता है। 15. प्रतिमाधारी भिक्षु के सामने यदि कोई उन्मत्त पशु आवे तो भयभीत होकर मार्ग छोड़ना नहीं कल्पता है / अपितु धैर्य के साथ चलते रहना कल्पता है तथा किसी शांत पशु को मार्ग देने के लिये उसे एक तरफ होकर चलना कल्पता है। 16. प्रतिमाधारी भिक्षु को चलते समय या बैठे हुए गर्मी या सर्दी से बचने के लिये किसी प्रकार का संकल्प या प्रयत्न करना नहीं कल्पता है किन्तु जहां जिस अवस्था में है, वहां वैसी ही स्थिति में समभाव पूर्वक स्थिरचित्त से सहनशील होकर रहना कल्पता है। यद्यपि संयमसाधना के लिये उद्यत प्रत्येक भिक्षु को धैर्य रखना तथा निस्पृह होकर शरीर की शुश्रूषा न करना आवश्यक है, किन्तु प्रतिमाधारी के लिये तो उक्त दोनों अनिवार्य नियम हैं / उपरोक्त सोलह नियमों में कई नियम तो मानो धैर्य की परीक्षा के लिये ही हैं, यथा--- अग्नि में जलते समय बाहर निकलने का संकल्प भी नहीं करना, सिंह आदि के सामने आने पर भी मार्ग न छोड़ना, आँखों में गिरी हुई रज आदि का शोधन नहीं करना, पांव में लगे कांच प्रादि को नहीं निकालते हुए ईर्यासमिति पूर्वक आठ मास तक विहार करते रहना इत्यादि / प्रतिमा-पाराधनाकाल में उक्त उपसर्ग आवे या न भी आवे, किन्तु भिक्षाप्राप्ति का कठोरतम नियम निरन्तर आठ महिनों के लिये अत्यन्त दुष्कर है। लम्बी तपश्चर्या करना फिर भी सरल हो सकता है किन्तु एक पांव देहली के अंदर और एक पांव बाहर तथा एक व्यक्ति के खाने लायक भोजन में से ही लेना इत्यादि विधि से आहार का या अचित्त पानी का मिलना अत्यन्त दुर्लभ ही होता है। ऐसी भूख-प्यास सहन करते हुए भी सदा भिक्षा के लिये घूमना तथा एक या दो रात्रि रुकते हुए आठ मास तक विहार करते रहना अत्यन्त कठिन है / इसीलिये भिक्षुप्रतिमा-आराधन के लिये प्रारम्भ के तीन संहनन, 20 वर्ष की संयमपर्याय, 29 वर्ष की उम्र तथा जघन्य ९वें पूर्व की तीसरी प्राचारवस्तु का ज्ञान होना आवश्यक है। अनेक प्रकार की साधनाएं व अभ्यास भी प्रतिमा धारण के पूर्व किये जाते हैं। उनमें उत्तीर्ण होने पर प्रतिमा धारण के लिये आज्ञा मिलती है। अतः वर्तमान में इन भिक्षुप्रतिमाओं का पाराधन नहीं किया जा सकता है अर्थात् इनका विच्छेद माना गया है। इन भिक्षप्रतिमाओं में पहली से सातवी प्रतिमा तक उपवास आदि तपस्या का कोई आवश्यक नियम नहीं है, फिर भी इच्छानुसार तप करने का निषेध भी नहीं समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal.Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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