________________ दसवों दशा] [107 सेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिता आबाहंसि उत्पन्नंसि वा अगुप्पन्नंसि वा भत्तं पच्चक्खाएइ, भत्तं पच्चक्खाइत्ता, बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेइ, बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेत्ता पालोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णय रेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / / एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फल-विवागे जं नो संचाएइ तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेत्तए। हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है यावत् संयम की साधना में प्रयत्न करता हुमा निर्ग्रन्थ दिव्य मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि "मानुषिक कामभोग अध्र व यावत् त्याज्य हैं। दिव्य कामभोग भी अध्र व यावत् भवपरम्परा बढ़ाने वाले हैं तथा पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" ___ "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में जो ये अंतकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, कृपणकुल या भिक्षुकुल हैं, इनमें से किसी एक कुल में पुरुष बनू जिससे मैं प्रवजित होने के लिए सुविधापूर्वक गहवास छोड़ सकू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है / यावत् दिव्य भोग भोगता हुना विचरता है, यावत् वह देव उस देवलोक से अायु क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है, यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् अापके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०-क्या इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०-हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है ? उ०-हां, सुनता है। प्र०-क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ! उ०-हां, वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है। प्र०-क्या वह गृहवास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अनगारप्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ० हां, वह अनगारप्रव्रज्या स्वीकार करता है। प्र०—क्या वह उसी भव में सिद्ध हो सकता है यावत् सब दुःखों का अंत कर सकता है ? उ०—यह सम्भव नहीं है / 1. पहले निदान में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org