________________ 110 [वशाश्रुतस्कन्ध आवश्यकादि आगमों में निदान को आत्मा का आभ्यंतर शल्य अर्थात् हृदय का कंटक कहा है। जैसे पांव में लगा कंटक शारीरिक समाधि भंग करता है और जब तक निकल न जाय या नष्ट न हो जाय तब तक खटकता रहता है, उसी प्रकार आलोचना प्रायश्चित्त के द्वारा निदानशल्य निकल न जाये या उदय में आकर नष्ट न हो जाये तब तक बोधि (सम्यक्त्व), चारित्र और मुक्ति के लाभ में बाधक बन कर खटकता रहता है / अतः प्रात्मशांति के इच्छुक मुमुक्षु को किसी भी प्रकार का निदान (संकल्प) नहीं करना चाहिये। निदान कितने प्रकार के होते हैं ? उसकी कोई निश्चित संख्या इस दशा में नहीं कही गई है। जिन निदानों का वर्णन किया है उनकी संख्या नव है और एक अनिदान अवस्था का वर्णन है। समवायांगसूत्र में बताया गया है कि वासुदेव पद को प्राप्त करने वाले सभी पूर्वभव में निदान करते हैं। सभी प्रतिवासुदेव पद वाले जीव भी पूर्वभव में निदान करने वाले होते हैं / कोईकोई चक्रवर्ती भी पूर्वभव में निदान करने वाले होते हैं। अन्य भी कई जीव कोणिक आदि की तरह निदानकृत हो सकते हैं। निदान भी मंद या तीन परिणामों से विभिन्न प्रकार के होते हैं / तीव्र परिणामों से निदान करने वाले जीव निदानफल को प्राप्त करके नरकगति को प्राप्त करते हैं और मंद परिणामों से निदान करने वाले फल की प्राप्ति के बाद धर्माचरण करके सद्गति प्राप्त कर सकते हैं किन्तु मुक्त नहीं ते / धर्मप्राप्ति का निदान करने वाले भी उस निदान का फल प्राप्त कर लेते हैं किन्तु मुक्त नहीं हो सकते हैं। निदानवर्णन के पूर्व इस दशा में श्रेणिक और चेलना से सम्बन्धित घटित घटना का वर्णन किया गया स वर्णन में पूर्व दशाओं की उत्थानिकापद्धति से भिन्न प्रकार की उत्थानिका है, छोटी दशाएं होने का नियुक्तिकार का कथन होते हुए भी यह दशा विस्तृत वर्णन वाली है, अन्य छेदसूत्रों के विषयों से इस दशा का वर्णन भी भिन्न प्रकार का है। इसका कारण अज्ञात है, जो विद्वानों के लिए चिन्तनयोग्य है। विस्तृत पाठ प्रायः उववाईसूत्र से मिलता-जुलता है। अतः संक्षिप्त पाठों का संकलन और "जाव" शब्द का प्रयोग अत्यधिक हुआ है। वे संक्षिप्त पाठ अनेक लिपिदोषों से युक्त हैं / जिससे संक्षिप्त पाठ अनावश्यक और अशुद्ध भी हो गये हैं / इस दशा के संक्षिप्त पाठों को यथामति सुधार कर व्यवस्थित करने की कोशिश की गई है। प्रारम्भ के चार निदानों में कहा गया है कि संयमसाधना करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के चित्त में यदा-कदा भोगाकांक्षा उत्पन्न हो जाती है और वे मानुषिक भोगों की प्राप्ति के लिये निदान (संकल्प) करते हैं / संयम तप के प्रभाव से संकल्प के अनुसार फल प्राप्त भी हो जाता है किन्तु उसका परिणाम यह होता है कि वह जीवन भर धर्मश्रवण के भी अयोग्य रहता है और काल करके नरक में जाता है। 1. प्रथम निदान में निर्ग्रन्थ का पुरुष होना कहा है। 2. दूसरे निदान में निर्ग्रन्थी का स्त्री होना कहा है। 3. तीसरे निदान में निर्ग्रन्थ का स्त्री होना कहा है। 4. चौथे निदान में निर्ग्रन्थी का पुरुष होना कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org