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________________ {रशाश्रुतस्कन्ध 7. सुसमाधियुक्त प्रशस्त लेश्या वाले, विकल्प से रहित, भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाले और सर्व प्रकार के बन्धनों से मुक्त आत्मा मन के पर्यवों को जानता है। 8. जब जीव का समस्त ज्ञानावरणकर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब वह केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को जानता है / 9. जब जीव का समस्त दर्शनावरणकर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब वह केवली जिन समस्त __ लोक और अलोक को देखता है। 10. प्रतिमा के विशुद्धरूप से प्राराधन करने पर और मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर सुसमाहित आत्मा सम्पूर्ण लोक और अलोक को देखता है / 11. जैसे मस्तक स्थान में सूई से छेदन किये जाने पर तालवृक्ष नीचे गिर जाता है , इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म विनष्ट हो जाते हैं। 12. जैसे सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना अस्त-व्यस्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के - क्षय हो जाने पर शेष सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं। 13. जैसे धूमरहित अग्नि ईन्धन के प्रभाव से क्षय को प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। 14. जैसे शुष्क जड़वाला वृक्ष जल-सिंचन किये जाने पर भी पुनः अंकुरित नहीं होता है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म भी पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। 15. जैसे जले हुए बीजों से पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, इसी प्रकार कर्मबीजों के जल जाने पर भवरूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं। 16. औदारिक शरीर का त्याग कर तथा नाम, गोत्र, वायु और वेदनीय कर्म का छेदन कर केवली भगवान् कर्म-रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं। 17. हे आयुष्मन् शिष्य ! इस प्रकार (समाधि के भेदों को) जान कर, राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर, शुद्ध श्रेणी (क्षपक-श्रेणी) को प्राप्त कर प्रात्मा शुद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-व्यापार में पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को जब इच्छित धन-राशि की प्राप्ति होती है तब उसे अत्यन्त प्रसन्नता होती है, वैसे ही संयम-साधना में लीन मोक्षार्थी साधक को जब सूत्रोक्त दस आत्मगुणों में से किसी गुण की प्राप्ति होती है तब उसे भी अनुपम प्रात्मानन्द की प्राप्ति होती है / उस अनुपम आनन्द को ही प्रस्तुत दशा में चित्तसमाधि कहा गया है। सूत्र में दसों ही स्थान था रूप में कहे गये हैं। गद्यपाठ में उन दस चित्तसमाधिस्थानों का कथन है और गाथाओं में उन समाधिस्थानों की प्राप्ति किस प्रकार की साधना करने वाले भिक्षु को होती है, यह कहा है और उस समाधिस्थान का क्या परिणाम होता है, यह भी बताया गया है / दस चित्तसमाधिस्थान इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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