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________________ 2. व्यवहारज्ञ--(न्यायाधीश) जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता होता है वही किसी अभियोग आदि पर विवेकपूर्वक विचार करने वाला एवं दण्डनिर्णायक होता है। ____ लोकोत्तर व्याख्या भी दो प्रकार की है.-१ सामान्य और 2 विशेष / सामान्य व्याख्या है—एक गण का दूसरे गण के साथ किया जाने वाला आचरण / अथवा एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ, एक आचार्य, उपाध्याय आदि का दूसरे आचार्य , उपाध्याय आदि के साथ किया जाने वाला आचरण / विशेष व्याख्या है –सर्वज्ञोक्त विधि से तप प्रभृति अनुष्ठानों का “वपन" याने बोना और उससे अतिचारजन्य पाप का हरण करना व्यवहार है'। 'विवाप' शब्द के स्थान में 'व्यव' आदेश करके 'हार' शब्द के साथ संयुक्त करने पर व्यवहार शब्द की सृष्टि होती है यह भाष्यकार का निर्देश है। व्यवहार के भेद-प्रभेद व्यवहार दो प्रकार का है—१ बिधि व्यवहार और 2 अविधि व्यवहार / अविधि व्यवहार मोक्ष-विरोधी है, इसलिए इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। व्यवहार चार प्रकार के हैं-१ नामव्यवहार 2 स्थापनाव्यवहार 3 द्रव्यव्यवहार और 4 भावव्यवहार। 1. नामव्यवहार—किसी व्यक्ति विशेष का 'व्यवहार' नाम होना / 2. स्थापनाव्यवहार-व्यवहार नाम वाले व्यक्ति की सत् या असत् प्रतिकृति / 3. द्रव्यव्यवहार के दो भेद हैं—आगम से और नोआगम से। आगम से अनुपयुक्त (उपयोगरहित) व्यवहार पद का ज्ञाता / नोआगम से—द्रव्यव्यवहार तीन प्रकार का है-१ ज्ञशरीर 2 भव्यशरीर और 3 तद्व्यतिरिक्त / ज्ञशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का मृतशरीर / भव्यशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का भावीशरीर / तव्यतिरिक्त द्रव्यव्यवहार-व्यवहार श्रुत या पुस्तक / यह तीन प्रकार का है-१ लौकिक, 2 लोकोत्तर और कुप्रावनिक। लौकिक द्रव्यव्यवहार का विकासक्रम मानव का विकास भोगभूमि से प्रारम्भ हुआ था। उस आदिकाल में भी पुरुष पति रूप में और स्त्री पत्नी रूप में ही रहते थे, किन्तु दोनों में काम-वासना अत्यन्त सीमित थी। सारे जीवन में उनके केवल दो सन्ताने (एक साथ) होती थीं। उनमें भी एक बालक और एक बालिका ही। "हम दो हमारे दो" उनके सांसारिक जीवन का यही सूत्र था। वे भाई-बहिन ही युवावस्था में पति-पत्नी रूप में रहने लगते थे। 1. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 2. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 3. व्यय० भाष्य० पीठिका गाथा-६ / [ 17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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