________________ छठी दशा] [47 पालन का कथन प्रतिमाधारी के लिये महत्त्व नहीं रखता है। यदि पांचवीं प्रतिमा के पूरे पांच महीने स्नान का त्याग करने का अर्थ किया जाय तो भी असंगत है। क्योंकि पांच मास तक रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करे और स्नान का पूर्ण त्याग रखे, इन दोनों नियमों का सम्बन्ध अव्यावहारिक होता है / अतः स्वीकृत पाठ ही उचित ध्यान में आता है। उपरोक्त लिपिप्रमादादि के कारणों से ही इन दोनों प्रतिमाओं के नाम समवायांगसूत्र में भिन्न हैं तथा ग्रन्थों में भी अनेक भिन्नताएँ मिलती हैं / 7. सातवीं सचित्तत्यागप्रतिमा का पाराधक श्रावक पानी, नमक, फल, मेवे आदि सभी सचित्त पदार्थों के उपभोग का त्याग करता है, किन्तु उन पदार्थों को अचित्त बनाने का त्याग नहीं करता है। 8. आठवीं प्रारम्भत्यागप्रतिमाधारी श्रावक स्वयं प्रारम्भ करने का सम्पूर्ण त्याग करता है, किन्तु दूसरों को आदेश देकर सावध कार्य कराने का उसके त्याग नहीं होता है। 9. नौवीं प्रेष्यत्यागप्रतिमा में धावक प्रारम्भ करने व कराने का त्यागी होता है, किन्तु स्वतः ही कोई उसके लिये आहारादि बना दे या प्रारम्भ कर दे तो उस पदार्थ का वह उपयोग कर सकता है। __ 10. दसवीं उद्दिष्ट भक्तत्यागप्रतिमाधारी श्रावक दूसरे के निमित्त बने आहारादि का उपयोग कर सकता है, स्वयं के निमित्त बने हुए आहारादि का उपयोग नहीं कर सकता है। उसका व्यावहारिक जीवन श्रमण जैसा नहीं होता है। इसलिए उसे किसी के पूछने पर-"मैं जानता हूँ या मैं नहीं जानता हूँ" इतना ही उत्तर देना कल्पता है / इससे अधिक उत्तर देना नहीं कल्पता है / किसी वस्तु के यथास्थान न मिलने पर इतना उत्तर देने से भी पारिवारिक लोगों को सन्तोष हो सकता है। इस प्रतिमा में श्रावक क्षुरमुंडन कराता है अथवा बाल रखता है / 11. ग्यारहवीं श्रमणभूतप्रतिमाधारी श्रावक यथाशक्य संयमी जीवन स्वीकार करता है। किन्तु यदि लोच न कर सके तो मुण्डन करवा सकता है। वह भिक्षु के समान गवेषणा के सभी नियमों का पालन करता है। इस प्रतिमा की अवधि समाप्त होने के बाद वह प्रतिमाधारी सामान्य श्रावक जैसा जीवन बिताता है। इस कारण इस प्रतिमा-आराधनकाल में स्वयं को भिक्षु न कहकर "मैं प्रतिमाधारी श्रावक हूँ" इस प्रकार कहता है। पारिवारिक लोगों से प्रेमसम्बन्ध का आजीवन त्याग न होने के कारण वह ज्ञात कूलों में ही गोचरी के लिए जाता है। यहाँ ज्ञात कुल से पारिवारिक और अपारिवारिक ज्ञातिजन सूचित किये गये हैं / भिक्षा के लिये घर में प्रवेश करने पर वह इस प्रकार करे कि "प्रतिमाधारी श्रावक को भिक्षा दो।" समवायांगसूत्र सम. 11 में भी इन ग्यारह प्रतिमाओं का कथन है। वहां पांचवीं प्रतिमा का नाम भिन्न है / इसमें लिपि-प्रमाद ही एकमात्र कारण है। इन ग्यारह प्रतिमाओं में से प्रत्येक प्रतिमा का आराधनकाल और सभी प्रतिमाओं का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org