Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ मन्दिरों को प्रदक्षिणा दिया करती हैं / शत्रुजय-पर्वत को सचमुच ही, पूर्वीय देशों की अद्भुत कथाओं के एक कल्पित पहाड़ की यथार्थ उपमा ही दी जा सकती है। और उसके अधिवासी मानो एका एक संगमर्मर के पुतले बन गये हों, परन्तु अप्सराएँ आकर उन्हें अपने हाथों से स्वच्छ और चमकित रखती हों, सुगन्धित पदार्थों के धूप धरती हों तथा अपने सुस्वरद्वारा देवों के शृङ्गारिक गीत गा कर हवा को गान से भरती हों ऐसा आभास होता है।" .... पर्वत पर नौ, या दश टोंक हैं / प्रत्येक टोंक में छोटे बड़े सैकड़ों मन्दिर बने हुए हैं / नौ टोंकों का संक्षेप में हाल इस प्रकार है.. पहिली-आदीश्वर भगवान् की टोंक-शत्रुजयगिरि के दूसरे शिखर पर यह टोंक बनी हुई है / यह टोंक सब से बड़ी है / इस अकेलीने ही पर्वत का सारा दूसरा शिखर रोक रक्खा है / इस तीर्थ की जो इतनी महिमा है वह इसी के कारण है। तीर्थपति आदिनाथ का ऐतिहासिक और दर्शनीय मन्दिर इसी के बीच में है / बड़े कोट के दर्वाजे में प्रवेश करते ही एक सीधा राजमार्ग जैसा फर्शबंध रास्ता दृष्टिगोचर होता है जिसकी दोनों ओर पंक्तिबद्ध सैंकड़ों मन्दिर अपनी विशालता, भव्यता और उच्चता के कारण दर्शकों के दिल एकदम अपनी और खींच लेते हैं जिससे देखनेवाला क्षणभर मुग्ध होकर मन्दिरों में बिराजित मूर्तियों की तरह स्थिर-स्तंभितसा हो जाता है / जिस मन्दिर पर दृष्टि डालो वही अनुपम मालूम होता है। किसी की कारीगरी,