Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 278
________________ २५-जो आर्हत आगमों और परकीयदर्शनों के अद्वितीय वेत्ता, श्रामण्य में परायण, कुशाप्रमति, और अतिचार आदि दोषों से रहित थे। जिन्होंने अनेक भव्यों को दृढ सम्यक्त्वी बना कर सद्गति के पात्र बनाये और मोक्षाभिलाषी कृतिनरों को संसार कारागार से छोड़ाये / ..२६-विजयराजेन्द्रसूरि रूप सूर्य के उदय होने पर स्वच्छन्दचारी कुलिङ्गीरूप घुग्घु भयवश से नीड के समान कुवादिरूप गृहों (गुहाओं ) में शीघ्र छिपजाते हैं और भविकरूप उत्तम कमल विकसित होते हैं, तथा भूतल में ( शासन का ) विकास होता है। .. 27-28 जो जैनधर्मानुयायी अनेक शिष्यों को शिक्षा देकर, और उनके चारित्र को शुद्ध बनाके निर्ग्रन्थ मुनिवरों को शिक्षा करते हैं और जिनकी दश दिशाओं में कीर्तिसमुदाय को फैलाने वाली, और स्पष्ट गुरुगुण कीर्तन से पवित्र हृदयवाली श्रावकमण्डली, जिनेन्द्र चरणकमलों के अमन्द मकरन्द में लोलुप भ्रमरी स्वरूप बन गई है। 29-32 जिनके उपदिष्ट नाना देशों के श्रद्धावन्त श्रावकोंने निजोपार्जित द्रव्यों से सेंकडों जिनमन्दिर बनवाये, और साधुयोग्य भूमि पर सुरम्य उपाश्रय बनवाये, जिनमें कि उत्तम मुनिवर सुखपूर्वक ठहरते हैं। जिनके उपदेश से प्रतिग्राम में ज्ञानभण्डार स्थापित हुए, जिनमें किं स्वशास्त्र और परकीय शास्त्रों का अच्छा संग्रह है और श्रावकोंने

Loading...

Page Navigation
1 ... 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318