Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ (235) जान पडता है कि यह देवल विक्रम की तेरहवीं सदी के प्रारंभ में बना है जो लगभग ऊपर की किंवदन्ती को ही सिद्ध करता है। - इस कसबे ( नगर ) के नाम से 'थिरापद्र' नामका एक गच्छ भी निकला था, जो थिरापद्र, थीरापद्र, थीरापद्रीय, थारापद्र और थीयारा इन नामों से भी प्रसिद्धी में आया / रामसेण से मिले एक प्रशस्ति लेख से पता लगता है कि 'चन्द्रकुलीन वटेश्वराचार्य से यह गच्छ उत्पन्न हुआ जिसने अपनी निर्मलता से दिग्मंडल को समुद्योतित किया / ' इस गच्छ के वादिवैताल शान्तिसूरिजीने सं० 1085 में उत्तराध्ययन-सूत्र पर विस्तृत और गूढाशयवाली पाई नामक टीका रची है। शालिभद्राचार्य के शिष्य नमिसाधुने रुद्रट रचित काव्यालङ्कार पर टिप्पन और सं० 1122 में बडावश्यक टीका वनाई है। इस गच्छ में अनेक विद्वान् दिग्गज आचार्य हो गये हैं और उनके कृत कार्य आज तक उनकी विमल कीर्ति के सौरभ से संसार को सुवासित कर रहे हैं। इस गच्छ के अस्तित्व को बतानेवाले कतिपय जिनप्रतिमाओं के लेख इस प्रकार हैं 1 विमलवसही-आबु देलवाडासंवत् 1119-- 1 चन्द्रकुलोद्भवस्ततो, वटेश्वरारूयः क्रमबलः / / थिरापद्रोद्भुतस्तस्माद् , गच्छोऽत्र सर्वादिकख्यातः / शुद्धाच्छयशोनिकरैर्धवलितदिक्चक्रवालोऽस्ति /