Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 01
Author(s): Yatindravijay
Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
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________________ (104) हाथ से प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कराके 108 अंगुलप्रमाण बडी भगवान् श्रीअजितनाथस्वामी की प्रतिमा बिराजमान की। कुमारपाल-प्रबन्ध में लिखा है कि-- " जिनधर्मप्राप्तौ चैकदा श्रीगुरुवन्दनायागतेन राज्ञा श्रीगुरवः श्रीअजितनाथस्तुतिं पठन्तो दृष्टाः / तदा श्रीअजितनाथबिम्बप्रभावः स्मृतिपथमायातः / हृष्टेन श्रीगुरुभ्यो विज्ञप्तं तत्स्वरूपम् / गुरुरपि हे श्रीचौलुक्यभूप ! अयं तारणदुर्गोऽनेकमुनिसिद्धि प्रापकत्वेन श्रीशत्रुञ्जयतीर्थप्रतिकृतिरूप एवेति व्याख्याते श्रीकुमारपालभूपेन तत्र कोटिसिद्धिपूतकोटिशिलादिमनोरमे भीतारणदुर्गे चतुरशीतिहस्तोच्च-एकोत्तरशताङ्गुलश्रीअजितबिम्बालङ्कृतः प्रासादः कारितः। -जिनधर्म की प्राप्ति हुए बाद किसी समय गुरुवन्दन के लिये आये हुए राजाने श्रीहेमचन्द्रसूरिजी को श्रीअाजतनाथ भगवान् की स्तुति पढते हुए देखा / उस समय राजा को अजितनाथ की प्रतिमा का प्रभाव याद आया / आनन्दित-राजाने वह हकीकत गुरु के सामने प्रगट की / गुरुने कहा राजन् ! यह तारंगा पर्वत अनेक मुनि को सिद्धिदायक होने से शत्रुजयतीर्थ का प्रतिरूप ही है / इस व्याख्या को सुन के राजा कुमारपालने करोड़ों पुरुषों को सिद्धिप्रदान करने और कोटिशिला आदि से पवित्रित तारंगापर्वत पर एकसौ एक अंङ्गल प्रमाणवाली श्रीअजितनाथ की प्रतिमा से शोभित चौरासी हाथ ऊंचा मन्दिर बनवाया /