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(१९) २॥ और दूसरा जो विदितकर्म है सो प्रायश्चित्त, काम्य, नित्य, नैमित्तिकभेदसे चारप्रकारका है तिनोका क्रमसे वर्णन करते है. तिन चारोंमे १प्रायश्चित्त कर्म असाधारण साधारण भेदसे दो प्रकारका है. तिनमे एक पापनाशक-असाधारण प्रायश्चित्त है जैसे अश्वमेश्यज्ञ; एक ब्रह्महत्यानाशक है और सर्वपापनाशक साधारण प्रायश्चित्त है जैसे गंगास्नान तथा हरिद्रनामोच्चारण है. और चारोमे जो दूसरा विहितकर्म है सो काम्यकर्म है, जैसे स्वर्गकी कामनावाला अग्निमे हवन करे. और चारोंमे तीसरा नित्य विहित कर्म है जैसे स्नानसंध्यादिक जो शुभकर्म है तिन क. मौके न करणेसे पापहोवे है करनेसे फलनही होवे है. और सर्वदा कर्म करणीय है. और चौथा नैमित्तिक विहितकर्म है जैसे श्राद्धकर्म ग्रहणमे जो कर्म है तिनकेभी नही करनेसे पाप होवे है, तथा करनेसे फल नही होवे है. और यथासमय कर्म करने योग्य होवे है ते नैमित्तिक कर्म कहे है.
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