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७॥ और नर्वान कोई नैयायिक आत्मा व्यापक नही एसे माने है सो मतभी ठीक नही. काहेते जो न्यूनाधिक शरीरमे न्यून अधिक होनेते, विकारी होनेते आत्मा घटवत् नाश होवेगा और शरीरमात्र माने लघुदीर्घ होना नहीं माने तो कौन शरीरतुल्य मानेगे और जब कर्मवशते लघुदीर्घशरीरकी प्राप्ति होव तब आत्माकी कैसी गती होवेगी इस उत्तरमे मौनबिना नैयायकोकी दुसरी कौन गती होवेगी. ॥इति श्री तृतीयकमलमे न्यायमत समाप्त भया.॥
* ॥ अथ चतुर्थकमलम मीमांसामतमंडनग्लंडन ॥ *
१ ॥ इस मीमांसकके मतविष विहित निषिद्ध भेदसे कर्म दो प्रकारका अंगीकार कीये है. तिन दोनोमे १ जो निषिद्ध कर्म है सो एकही है जो पुरुषके निवृत्ति बाम्ते कथन कीया है जैसे अ. प्रियवाक्य, असत्यवाणी न बोलनी चाहीय. जो असत्यसंभाषण कर है सो समूलनाशकोंप्राप्त होता है एसे श्रुति कहती है.
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