Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रथम परिच्छेद
तीर्थंकर - परम्परा और महावीर
मानवजीवन एवं धर्म-दर्शन
धर्म और दर्शन मानवजीवन के लिये आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हैं । जब मानव चिन्तन- सागर में निमग्न होता है, तब दर्शनका और जब उस चिन्तनका अपने जीवनमें उपयोग या प्रयोग करता है, तब धर्मकी उत्पत्ति होती है । मानवजीवनकी विभिन्न समस्याओंके समाधान हेतू धर्म और दर्शनका जन्म हुआ है । धर्म और दर्शन परस्पर में सापेक्ष हैं, एक दूसरेके पूरक हैं । चिन्तकोंने धर्म बुद्धि, भावना और क्रिया ये तीन तस्व माने हैं। बुद्धिसे ज्ञान, भावनासे श्रद्धा और क्रिया से आचार अपेक्षित है। जैन दृष्टिमें इसीको सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहा जाता है । काण्टने धर्मको व्याख्या करते हुए ज्ञान और क्रियाको महत्त्व दिया है। मार्टिन्यूने धर्मके अन्तर्गत विश्वास, विचार और आचार इन तोनोंका समन्वय माना है । प्रकारान्तरसे इन्हें भक्ति, ज्ञान और कर्म कहा जा सकता है ।
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