Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
हुआ देख कर उन कुमारियों ने रावण से कहा-
" स्वामिन् ! शीघ्र चलो, देर मत करो । यह अमरसुन्दर विद्याधरों का इन्द्र हैं और स्वयं अजेय है, फिर इनके साथ कनक, बुद्ध आदि अनेक बलवान वीर हैं । यदि ये आ पहुँचे, तो बचना कठिन होगा ।"
'सुन्दरियों ! डरो मत। तुम मेरा रण-कोशल देखो । ये सभी गीदड़ अभी भाग जाते हैं ।"
इतने में शत्रु-सेना आ गई । युद्ध हुआ और अन्त में रावण ने सभी को प्रस्थापन विद्या से मोहित कर के नागपाश में बांध लिया । जब सभी कुमारियों ने पितृ- भिक्षा माँगी तब उन्हें मुक्त किया ।
कुंभपुर के राजा महोदर की पुत्री तडिन्माला के साथ कुंभकर्ण के और ज्योतिषपुर के राजा वीर की पुत्री पंकजश्री के साथ विभीषण के लग्न हुए। रावण की रानी मन्दोदरी एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम 'इन्द्रजीत' रखा। उसके बाद दूसरा पुत्र हुआ, उसका नाम 'मेघवाहन' दिया ।
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रावण का दिग्विजय
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लंका नगरी पर वैश्रमण का राज्य था । अपने पूर्वजों के राज्य पर से पिता को हटा कर राज्य करने वाला वैश्रमण, अब रावण आदि भ्रातृ-मण्डल को खटक रहा था । कुंभकर्ण और विभीषण लंका में उपद्रव करने लगे । उनके उपद्रव से प्रभावित हो कर वैश्रमण ने अपना दूत, सुमाली के पास भेज कर कहलाया ;" तुम्हारे पुत्र कुंभकर्ण और विभीषण लंका में आ कर उपद्रव कर रहे हैं । इन मूर्ख बालकों को रोको । यदि तुमने इन्हें नहीं रोका, तो उन्हें और उनके साथ तुम्हें भी माली के मार्ग -- मृत्यु की ओर पहुँचा दिया जायगा । ये उद्दंड छोकरे हमारी शक्ति नहीं जानते, किन्तु तुम तो हमारे बल से पूर्ण परिचित हो । अतएव समझ जाओ और अपनी पाताल - लंका में चुपचाप पड़े रहो ।
दूत की इस प्रकार की अपमान-कारक बात सुन कर रावण क्रोधित हो गया और कहने लगा; --
"वह वैश्रमण किस बल पर घमण्ड कर रहा है ? बिचारा खुद दूसरे के आधीन
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